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________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 148 वह पुरुष (कामनात्यागी) कुश की नोंक को छुए हुए (बारम्बार दूसरे जलकण पड़ने से) अस्थिर और वायु के झोंके से प्रेरित (प्रकम्पित) होकर गिरते हुए जलबिन्दु की तरह जीवन को (अस्थिर) जानता-देखता है। बाल (अज्ञानी), मन्द (मन्द बुद्धि) का जीवन भी इसी तरह अस्थिर है, परन्तु वह (मोहवश) (जीवन के अनित्यत्व) को नहीं जान पाता। (इसी प्रज्ञान के कारण) वह बाल-अज्ञानी (कामना के वश हुप्रा) हिंसादि क्रूर कर्म उत्कृष्ट रूप से करता हुआ (दुःख को उत्पन्न करता है।) तथा उसी दुःख से मूढ़ उद्विग्न होकर वह विपरीत दशा (सुख के स्थान पर दुःख) को प्राप्त होता है / उस मोह (मिथ्यात्व-कषाय-विषय-कामना) से (उद्भ्रान्त होकर कर्मबन्धन करता है, जिसके फलस्वरूप) बार-बार गर्भ में प्राता है, जन्म-मरणादि पाता है। . इस (जन्म-मरण की परम्परा) में (मिथ्यात्वादि के कारण) उसे बारम्बार मोह (व्याकुलता) उत्पन्न होता है / विवेचन--'लेव से अंतो सेव से दूरे'–पद में कामनात्यागी के लिए कहा गया है-'वह मोक्ष से तो दूर नहीं है और मृत्यु की सीमा के अन्दर नहीं है अर्थात् वह जीवन्मुक्त स्थिति इस पद का अनेक नयों से विवेचन किया गया है। एक नय के अनुसार वह कामनात्यागी सम्यक दृष्टि पुरुष ग्रन्थि-भेद हो जाने के कारण अब कर्मों की सुदीर्घ सीमा में भी नहीं रहा और देशोनकोटा-कोटी कर्मस्थिति रहने के कारण कर्मों से दूर भी नहीं रहा। दूसरे नय के अनुसार यह पद केवलज्ञानी के लिए है। चार घाति-कर्मों का क्षय हो जाने से न तो वह संसार के भीतर है और भवोपग्राही चार अघातिकर्मों के शेष रहने के कारण न वह संसार से दूर है / तीसरे नय के अनुसार इसका अर्थ है-जो साधक श्रमणवेश लेकर विषय-सामग्री को छोड़ देता है, किन्तु अन्त:करण से कामना का त्याग नहीं कर पाता, वह अन्तरंग रूप में साधना के निकट सीमा में नहीं है, और बाह्य रूप में साधना से दूर भी नहीं है, क्योंकि साधक के वेश में जो है। इस सूत्र में अज्ञानी की मोह-मूढ़ता का चित्रण करते हुए उसके तीन विशेषण दिये हैं (1) बाल, (2) मन्द और (3) अविजान / बालक (शिशु) में यथार्थ ज्ञान नहीं होता, उसी तरह वह भी अस्थिर व क्षण-भगुर जीवन को अजर-अमर मानता है, यह उसकी ज्ञानशून्यता ही उसका बचपन (बालत्व) है। सदसद्विवेक बुद्धि का अभाव होने से वह 'मन्द' है। तथा परम अर्थ-मोक्ष का ज्ञान नहीं होने से वह 'अविजान' है। इसी अज्ञानदशा के कारण वह सुख के लिए क्रूर कर्म करता है, बदले में दुःख पाता है, बार-बार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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