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________________ 122 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कग्य 132, मैं कहता हूँ जो अर्हन्त भगवान् अतीत में हुए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, वे सब ऐसा आख्यान (कथन) करते हैं, ऐसा (परिष में) भाषण करते हैं, (शिष्यों का संशय निवारण करने हेतु- ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, (तात्विक दृष्टि से-) ऐसा प्ररूपण करते हैं-समस्त प्राणियों, सर्व भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों का (डंडा आदि से) हनन नहीं करना चाहिए, बला. उन्हें शासित नहीं करना चाहिए, न उन्हें दास बनाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उनके प्राणों का विनाश करना चाहिए। यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है / खेदज्ञ अर्हन्तों ने (जीव-) लोक को सम्यक प्रकार से जानकर इसका प्रतिपादन किया है। . (अर्हन्तों ने इस धर्म का उन सबके लिए प्रतिपादन किया है), जैसे कि जो धर्माचरण के लिए उठे हैं, अथवा अभी नहीं उठे हैं। जो धर्मश्रवण के लिए उपस्थित हुए हैं, या नहीं हुए हैं, जो (जीवों को मानसिक, वाचिक और कायिक) दण्ड देने से उपरत हैं, अथवा अनुपरत हैं; जो (परिग्रहरूप) उपधि से युक्त हैं, अथवा उपधि से रहित हैं; जो संयोगों (ममत्व सम्बन्धों) में रत हैं, अथवा संयोगों में रत नहीं हैं। 133. वह (अर्हत्प्ररूपित अहिंसा धर्म) तत्त्व-सत्य है, तथ्य है (तथारूप ही है) / यह इस (अर्हत्प्रवचन) में सम्यक् प्रकार से प्रतिपादित है। साधक उस (ग्रह। भाषित-धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु अपनी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे (आवेश में आकर) फेंके या छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर (आजीवन उसका प्राचरण करे)। (इष्ट-अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय-विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे / वह लोकैषणा में न भटके / जिस मुमुक्षु में यह (लोकेषणा) बुद्धि (ज्ञाति = संज्ञा) नहीं है, उससे अन्य (सावद्यारम्भ-हिंसा) प्रत्ति कैसे होगी ? अथवा जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी विवेक बुद्धि कसे होगी ? यह जो (अहिंसा धर्म) कहा जा रहा है, वह इष्ट, श्रुत (सुना हुग्रा), मत (माना हुग्रा) और विशेष रूप से ज्ञात (अनुभूत) है। हिंसा में (गृद्धिपूर्वक) रचे-पचे रहने वाले और उसी में लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते रहते हैं। (मोक्षमार्ग में) अहर्निश यत्न करने वाले, सनत प्रज्ञावान, धीर साधक ! उन्हें देख जो प्रमत्त हैं. (धर्म से) बाहर हैं। इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा (अहिंसादि रूप धर्म में) पराक्रम कर। - ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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