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________________ 111 तृतीय अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 125-127 सहिते दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो संज्ञाए। पासिमं दविए लोगालोगपवंचातो मुच्चति त्ति बेमि / ॥तइओ उद्देसओ समत्तो॥ 127. हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की प्राज्ञा (मर्यादा) में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (मृत्युं, संसार) को तर जाता है। सत्य या ज्ञानादि से युक्त (सहित) साधक धर्म को ग्रहण करके श्रेय (प्रात्महित) का सम्यक् प्रकार से अवलोकन–साक्षात्कार कर लेता है। राग और द्वेष (इन) दोनों से कलुषित आत्मा जीवन की वन्दना, सम्मान और पूजा के लिए (हिंसादि पापों में ) प्रवृत्त होता है / कुछ साधक भी इन (वन्दनादि) के लिए प्रमाद करते हैं। ज्ञानादि से युक्त साधक (उपसर्ग-व्याधि आदि से जनित) दुःख की मात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल नहीं होता। प्रात्मद्रष्टा वीतराग पुरुष लोक में आलोक (द्वन्द्वों) के समस्त प्रपंचों (विकल्पों) से मुक्त हो जाता है। विवेचन-इस सूत्र में परम सत्य को ग्रहण करने और तदनुसार प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी गई है। साथ ही सत्ययुक्त साधक की उपलब्धियों एवं असत्ययुक्त मनुष्यों की अनुपलब्धियों की भी संक्षिप्त झांकी दिखाई है / 'सच्चमेव समभिजाणाहि' में वत्तिकार सत्य के तीन अर्थ करते हैं-(१) प्राणिमात्र के लिए हितकर-संयम, (2) गुरु-साक्षी से गृहीत पवित्र संकल्प (शपथ), (3) सिद्धान्त या सिद्धान्तप्रतिपादक आगम।' साधक किसी भी मूल्य पर सत्य को न छोड़े, सत्य की ही आसेवना, प्रतिज्ञापूर्वक प्राचरण करे, सभी प्रवृत्तियों में सत्य को ही आगे रखकर चले / सत्य-स्वीकृत संकल्प एवं सिद्धान्त का पालन करे, यह इस वाक्य का आशय है / 'हलो' (दुहतः) के चार अर्थ वृत्तिकार ने किये है(१) राग और द्वष दो प्रकार से, (2) स्व और पर के निमित्त से, (3) इहलोक और परलोक के लिए, (4) दोनों से (राग और द्वेष से) जो हत है, वह दुर्हत है।' 'जीवियस्स परिवंवण-माणण-पूयणाए'- इस वाक्य का अर्थ भी गहन है। मनुष्य अपने वन्दन, सम्मान एवं पूजा-प्रतिष्ठा के लिए बहुत उखाड़-पछाड़ करता है, अपनी प्रसिद्धि के लिए बहुत ही प्रारम्भ-समारम्भ, आडम्बर और प्रदर्शन करता है, सत्ताधीश बनकर प्रशंसा, 1. प्राचा० टीका पत्र 153 / 2. प्राचा. टीका पत्र 153 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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