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________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 112-117 या स्त्रियों के साथ व्यभिचार करके या दूसरे का धन, मकान आदि हड़प करके या अपने कब्जे में करके हास-विनोद या प्रमोद की अनुभूति करते हैं। ये सभी दूसरे प्राणियों के साथ अपना वर (शत्रुभाव) बढ़ाते रहते हैं।' 'अल बालस्स संगेणं' के दो अर्थ स्पष्ट होते हैं-एक अर्थ जो वृत्तिकार ने किया है, वह इस प्रकार है-"ऐसे मूढ़ अज्ञ पुरुष का हास्यादि, प्राणातिपातादि तथा विषय-कषायादिरूप संग न करे, इनका संसर्ग करने से वैर की वद्धि होती है। दूसरा अर्थ यह भी होता है कि ऐसे विवेकमूढ़ अज्ञ (बाल) का संग (संसर्ग) मत करो; क्योंकि इससे साधक की बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी, मन की वृत्तियाँ चंचल होंगी। वह भी उनकी तरह विनोदवश हिंसादि पाप करने को देखादेखी प्रेरित हो सकता है / आतंकदर्शी पाप नहीं करता; इसका रहस्य है—'कर्म या हिंसा के कारण दुःख होता है - जो यह जान लेता है, वह आतंकदर्शी है, वह स्वयं पापानुबन्धी कर्म नहीं करता, न दूसरों से कराता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है। 'अग्गं च मूलं च विगिच धीरे'--इस पद में आये --'अग्न' और 'मूल' शब्द के यहाँ कई अर्थ होते हैं-वेदनोयादि चार अघातिकर्म अग्र हैं, मोहनीय आदि चार घातिकर्म मूल हैं। मोहनीय सब कर्मों का मूल है, शेष सात कर्म अग्र हैं। मिथ्यात्व मूल है, शेष अवत-प्रमाद आदि अग्र हैं। धीर साधक को कर्मों के, विशेषतः पापकर्मों के अग्र (परिणाम या पागे के शाखाप्रशाखा रूप विस्तार) और मूल (मुख्य कारण या जड़) दोनों पर विवेक-बुद्धि से निष्पक्ष होकर चिन्तन करना चाहिए। किसी भी दुष्कर्मजनित संकटापन्न समस्या के केवल अग्र (परिणाम) पर विचार करने से वह सुलझती नहीं, उसके मूल पर ध्यान देना चाहिए। कर्मजनित दुःखों का मूल (बीज) मोहनीय है, शेष सब उसके पत्र-पुष्प हैं। इस सूत्र का एक और अर्थ भी वृत्तिकार ने किया है-दुःख और सुख के कारणों पर, 1. हंसी-मजाक से भी कई बार तीव वैर बंध जाता है। वृत्तिकार ने समरादित्य कथा के द्वारा संकेत किया है कि गुणसेन ने अग्निशर्मा की अनेक तरह से हसी उड़ाई, इस पर दोनों का वैर बंध गया, जो नौ जन्मों तक लगातार चला। -प्राचा० टीका पत्रांक 145 2. 'अलं बालस्स संगण' इस सत्र का एक अर्थ यह भी सम्भव है-बाल-अज्ञानी जन का संग-सम्पर्क मत करो: क्योंकि अज्ञानी विषयासक्त मनुष्य का संसर्ग करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है. जीवन में अनेक दोषों और दुर्गुणों तथा उनके कुसंस्कारों के प्रविष्ट होने की आशंका रहती है। अपरिपक्व साधक को अज्ञानीजन के सम्पर्क से ज्ञान-दर्शन-चारित्र से भ्रष्ट होते देर नहीं लगती। उत्तराध्ययन (3215) में स्पष्ट कहा है-- न वा लमज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समं वा / एक्को वि पावाई विवज्जयंतो विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो।। "यदि निपुण ज्ञानी, गुणाधिक या सम-गुणी का सहाय प्राप्त न हो तो अनासक्त भावपूर्वक अकेला ही विचरण करे, किन्तु अज्ञानी का संग न करे।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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