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________________ द्वितीय अध्ययन : पचम उद्देशक : सूत्र 1. 93. कासंकसे खलु अयं पुरिसे, बहुमायो, कडेग मूढे, पुणो तं करेति लोमं,' वेरं वड्ढेति अप्पणो। जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिबूहणताए। अमरायह महासड्ढी / अट्टमेतं तु पेहाए / अपरिग्णाए कंदति / 93. (काम-भाग में आसक्त) यह पुरुष सोचता है---मैंने यह कार्य किया, यह कार्य करूगा (इस प्रकार की प्राकलता के कारण वह दसरों को ठगता है, माया. कपट रचता है, और फिर अपने रचे मायाजाल में स्वयं फँस कर मूढ बन जाता है। वह मूढभाव से ग्रस्त फिर लोभ करता है (काम-भोग प्राप्त करने को लल. चाता है) और (माया एवं लोभयुक्त माचरण के द्वारा) प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है। ___ जो मैं यह कहता हूँ (कि वह कामी पुरुष माया तथा लोभ का आचरण कर अपना वैर बढ़ाता है) वह इस शरीर को पुष्ट बनाने के लिए ही ऐसा करता है। वह काम-भोग में महान श्रद्धा (प्रासक्ति) रखता हा अपने को अमर की भाँति समझता है / तू देख, वह आर्त-पीड़ित तथा दुःखी है। परिग्रह का त्याग नहीं करने वाला क्रन्दन करता है (रोता है)। विवेचन-इस सूत्र में अशान्ति और दुःख के मूलकारणों पर प्रकाश डाला गया है। मनुष्य----'यह किया, अब यह करना है, इस प्रकार के संकल्प जाल का शिकार होकर मूढ हो जाता है / वह वास्तविक जीवन से दूर भागकर स्वप्निल सृष्टि में खो जाता है। जीवन में सपने देखने लगता है. इस मन:स्थिति को 'कासकासे' शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है। ऐसा स्वप्नदर्शी मनुष्य-काम और भूख की वृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए अनेक हथकंडे करता है, बैर बढ़ाता है / वह जीवन में इतना आसक्त हो जाता है कि दूसरों को मरते हुए देखकर भी स्वयं को अमर की तरह मानने लगता है। आचार्य शीलांक ने उदाहरण देते हुए इसकी व्याख्या की है / "अर्थ-लोभी व्यक्ति सोने के समय में सो नहीं पाता, स्नान के समय में स्नान नहीं कर पाता, विचारा भोजन के समय भोजन भी नहीं कर पाता।"२ रात-दिन उसके सिर पर धन का भूत चढा रहता है। इस स्थिति में वह अपने आपको भूल-सा जाता है। यहाँ तक कि 'मृत्यु' जैसी अवश्यंभावी स्थिति को भी विस्मृत-सा कर देता है। एक बार राजगृह में धन नाम का सार्थवाह आया / वह दिन-रात धनोपार्जन में ही लीन रहता। उसकी विशाल समृद्धि की चर्चा सुनकर मगधसेना नामको गणिका उसके आवास पर 1. चूणि में पाठ है-"पुणो तं करेति लोग' नरगादिभवलोग करति णिवत्तेति' वह अपने कृत__ कर्मों से पुनः नरक आदि भाव लोक में गमन करता है। 2. सोउं सोवणकाले मज्जणकाले यमज्जिाउं लोलो।। जेमेउं च वरामो जेमणकाले न चाएइ। -आचा. टीका पत्रांक 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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