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________________ भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध न सा जाईन सा जोणी मतं ठाणं न त कुलं / जत्य न जाओ मओ वावि एस जीवो अणतसो॥ ऐसी कोई जाति, योनि, स्थान और कुल नहीं है, जहाँ पर यह जीव अनन्त बार जन्म. मृत्यु को प्राप्त न हुआ हो / भगवती सूत्र में कहा है-नस्थि केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्य गं अयं जीवे न जाए वा न भए वाविप इस विराट् विश्व में परमाणु जितना भो ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ यह जीव न जन्मा हो, न मरा हो।' जब ऐसी स्थिति है, तो फिर किस स्थान का वह अहंकार करे / किस स्थान के लिए दीनता अनुभव करे ! क्योंकि वह स्वयं उन स्थानों पर अनेक बार जा चुका है। इस विचार से मन में समभाव की जागति करे / मन को न तो अहंकार से दृप्त होने दे, न दीनता का शिकार होने दे ! बल्कि गोत्रवाद को, ऊँच-नीच की धारणा को मन से निकालकर प्रात्मवाद में रमण करे। __ यहाँ उच्चगोत्र-नीचगोत्र शब्द बह चचित शब्द है। कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से 'गोत्र' शब्द का अर्थ है "जिस कर्म के उदय से शरीरधारी आत्मा को जिन शब्दों के द्वारा पहचाना जाता है, वह 'गोत्र' है।" उच्च शब्द के द्वारा पहचानना उच्च गोत्र है, नीच शब्द के द्वारा पहचाना जाना नीच गोत्र है। इस विषय पर जैन ग्रन्थों में अत्यधिक विस्तार से चर्चा की गई है। उसका सार यह है कि जिस कुल की वाणो, विचार, संस्कार और व्यवहार प्रशस्त हो, वह उच्च गोत्र है और इसके विपरीत नीच गोत्र / गोत्र का सम्बन्ध जाति अथवा स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रान्ति है। कर्मसिद्धान्त के अनुसार देव गति में उच्चगोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीचगोत्र का उदय, किन्तु देवयोनि में भी किल्बिषिक देव उच्च देवों की दृष्टि में नीच व अस्पृश्यवत् होते हैं / इसके विपरीत अनेक पशु, जैसे-गाय, घोड़ा, हाथी, तथा कई नस्ल के कुने बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं / वे अस्पृश्य नहीं माने जाते / उच्चगोत्र में नीच जाति हो सकती है तो नीचगोत्र में उच्च जाति क्यों नहीं हो सकती ? अतः गोत्रवाद की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र-मद आदि को निरस्त करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि जब आत्मा अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का स्पर्शकर चुका है; कर रहा है तब फिर कौन ऊँचा है ? कौन नीचा? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार है, और अहंकार-'मद' है / 'मद' नीचगोत्र बन्धन का मुख्य कारण है ? अतः इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें तटस्थ रहता है, समत्वशील है वही पंडित है। प्रमाद एवं परिग्रह-जन्य दोष 76. भूतेहि जाण पडिलेह सातं / समिते एयाणुपस्सी / तं जहा--- अंधत्तं बहिरतं मूकत्तं काणत्तं कुटत्तं खुज्जतं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं / सह पमादेणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधेति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयति / 1. भगवती सूत्र श० 12 उ०७ 2. प्रज्ञापना सूत्र पद 23 की मलयगिरि वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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