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________________ समवतार निरूपण ४११ द्रव्यसमवतार की प्ररूपणा पूर्ण हुई। विवेचन– परसमवतार की असंभविता को यहां ध्यान में रखकर प्रकारान्तर से तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यसमवतार की द्विविधता का निरूपण किया है। प्रत्येक द्रव्य स्वस्वरूप की अपेक्षा स्वयं में ही रहता है लेकिन व्यवहार की अपेक्षा यह भी माना जाता है कि अपने से विस्तृत में समाविष्ट होता है। लेकिन उस समय भी उसका स्वतन्त्र अस्तित्व होने से वह स्वरूप में भी रहेगा ही। मानी, अर्धमानी, चतुर्भागिका आदि मगध देश के माप हैं। इनका प्रमाण पूर्व में बताया जा चुका है। क्षेत्रसमवतार ५३१. से किं तं खेत्तसमोयारे ? खेत्तसमोयारे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—आयसमोयारे य तदुभयसमोयारे य । भरहे वासे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं जंबुद्दीवे समोयरति आयभावे य । जंबुद्दीवे दीवे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं तिरियलोए समोयरति आयभावे य । तिरियलोए आयसमोयरेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं लोए समोयरति आयभावे य । से तं खेत्तसमोयारे । [५३१ प्र.] भगवन् ! क्षेत्रसमवतार का क्या स्वरूप है ? [५३१ उ.] आयुष्मन् ! क्षेत्रसमवतार का दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है। यथा—१. आत्मसमवतार, २. तदुभयसमवतार। आत्मसमवतार की अपेक्षा भरतक्षेत्र आत्मभाव (अपने) में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा जम्बूद्वीप में भी रहता है और आत्मभाव में भी रहता है। आत्मसमवतार की अपेक्षा जम्बूद्वीप आत्मभाव में रहता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा तिर्यक्लोक (मध्यलोक) में भी समवतरित होता है और आत्मभाव में भी। आत्मसमवतार से तिर्यक्लोक आत्मभाव में समवतीर्ण होता है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा लोक में समवतरित होता है और आत्मभाव-निजरूप में भी। यही क्षेत्रसमवतार का स्वरूप है। विवेचन- यहां क्षेत्रसमवतार का स्वरूप स्पष्ट किया है। लघु क्षेत्र के प्रमाण को यथोत्तर बृहत् क्षेत्र में समवतरित किये जाने को क्षेत्रसमवतार कहते हैं। उदाहरणार्थ दिये गये दृष्टान्तों का अर्थ सुगम है। उत्तरोत्तर भरतक्षेत्र, जम्बूद्वीप, तिर्यक्लोक आदि क्षेत्र बृहत् प्रमाण वाले क्षेत्र में भी समवतरित होते हैं। कालसमवतार ५३२. से किं तं कालसमोयारे ? १. लोए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरति, तदुभयसमोयारेणं अलोए समोयरति आयभावे य ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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