SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० अनुयोगद्वारसूत्र भावप्रमाण - ४२७. से किं तं भावप्पमाणे ? भावप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा—गुणप्पमाणे णयप्पमाणे संखप्पमाणे । [४२७ प्र.] भगवन् ! भावप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [४२७ उ.] आयुष्मन् ! भावप्रमाण तीन प्रकार का कहा है। यथा—१. गुणप्रमाण, २. नयप्रमाण और ३. संख्याप्रमाण। विवेचन— यह सूत्र भावप्रमाण का वर्णन करने के लिए भूमिका रूप है। भवनं भावः' यह भाव शब्द की व्युत्पत्ति है, अर्थात् होना यह भाव है। भाव वस्तु का परिणाम है। लोक में वस्तुएं दो प्रकार की हैं—जीव-सचेतन और अजीव-अचेतन। सचेतन वस्तु का परिणाम ज्ञानादि रूप है और अचेतन का परिणाम वर्णादि रूप है। ___उपर्युक्त कथन का सारांश यह है कि विद्यमान पदार्थों के वर्णादि और ज्ञानादि परिणामों की भाव और जिसके द्वारा उन वर्णादि परिणामों का भलीभांति बोध हो, उसे भावप्रमाण कहते हैं। वह भावप्रमाण तीन प्रकार का हैगुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण। गुणों से द्रव्यादि का अथवा गुणों का गुण रूप से ज्ञान होता है अतएव वे गुणप्रमाण कहलाते हैं। अनन्तधर्मात्मक वस्तु का एक अंश द्वारा निर्णय करना नय है। इसी को नयप्रमाण कहते हैं। संख्या का अर्थ है गणना करना। यह गणना रूप प्रमाण संख्यातप्रमाण है। भावप्रमाण के उक्त तीन भेदों का आगे विस्तृत वर्णन किया जाता है। गुणप्रमाण ४२८. से किं तं गुणप्पमाणे ? गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—जीवगुणप्पमाणे य अजीवगुणप्पमाणे य । [४२८ प्र.] भगवन् ! गुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [४२८ उ.] आयुष्मन्! गुणप्रमाण दो प्रकार का कहा गया है—जीवगुणप्रमाण और अजीवगुणप्रमाण। विवेचन— गुणप्रमाण के स्वरूपवर्णन को प्रारंभ करते हुए उसके दो भेदों का उल्लेख किया है। इन भेदों में से अल्पवक्तव्य होने से पहले अजीवगुणप्रमाण का निर्देश करते हैं। अजीवगुणप्रमाणनिरूपण ४२९. से किं तं अजीवगुणप्पमाणे ? अजीवगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा—वण्णगुणप्पमाणे गंधगुणप्पमाणे रसगुणप्पमाणे फासगुणप्पमाणे संठाणगुणप्पमाणे ।। [४२९ प्र.] भगवन् ! अजीवगुणप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [४२९ उ.] आयुष्मन् ! अजीवगुणप्रमाण पांच प्रकार का कहा गया है—१. वर्णगुणप्रमाण, २. गंधगुणप्रमाण,
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy