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________________ ३०८ अनुयोगद्वारसूत्र [३९५ प्र.] भगवन् ! इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात् इनका कथन किसलिए किया गया है ? [३९५ उ.] गौतम! इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। मात्र इनके स्वरूप की प्ररूपणा ही की गई है। इस प्रकार से यह व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम एवं सागरोपम का स्वरूपवर्णन समाप्त हुआ। विवेचन— सूत्र में व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम एवं सागरोपम के स्वरूप और प्रयोजन का संकेत करने के बाद अब--'तत्थ णं जे से सुहुमे से ठप्पे' की सूचनानुसार सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप बतलाते हैं। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम-सागरोपम ३९६. से किं तं सुहमे खेत्तपलिओवमे ? सुहमे खेत्तपलिओवमे से जहाणामए पल्ले सिया–जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उ8 उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय० जाव उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं समढे सन्निचिते भरिए वालग्गकोडीणं । तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाइं खंडाई कजइ, ते णं वालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेजइभागमेत्ता सुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेजगुणा । ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेज्जा, नो वातो हरेजा, णो कुच्छेज्जा, णो पलिविद्धंसेजा, णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । जे णं तस्स पल्लस्स आगासपदेसा तेहिं वालग्गेहिं अप्फुन्ना वा अणप्फुण्णा वा तओ णं समए समए गते एगमेगं आगासपदेसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिट्ठिए भवति । से तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे । [३९६ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का क्या स्वरूप है ? [३९६ उ.] आयुष्मन् ! सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए जैसे धान्य के पल्य के समान एक पल्य हो जो एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला हो। फिर उस पल्य को एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् सात दिन के उगे हुए बालानों से भरा जाए और उन बालानों के असंख्यात-असंख्यात ऐसे खण्ड किये जाएं, जो दृष्टि के विषयभूत पदार्थ की अपेक्षा असंख्यात भाग-प्रमाण हों एवं सूक्ष्मपनक जीव की शरीरावगाहना से असंख्यात गुणे हों। उन बालाग्रखण्डों को न तो अग्नि जला सके और न खयु उड़ा सके, वे न तो सड़-गल सकें और न जल से भीग सकें, उनमें दुर्गन्ध भी उत्पन्न न हो सके। उस पल्य के बालारों से जो आकाशप्रदेश स्पृष्ट हुए हों और स्पृष्ट न हुए हों (दोनों प्रकार के प्रदेश यहां ग्रहण करना चाहिए) उनमें से प्रति समय एक-एक आकाशप्रदेश का अपहरण किया जाए तो जितने काल में वह पल्य क्षीण, नीरज, निर्लेप एवं सर्वात्मना विशुद्ध हो जाये, उसे सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कहते हैं। ३९७. तत्थ णं चोयए पण्णवगं एवं वयासीअस्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहि अणप्फुण्णा ? हंता अत्थि,
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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