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________________ २८२ अनुयोगद्वारसूत्र [३७८, ३७९.] उनमें से सूक्ष्म अद्धापल्योपम अभी स्थापनीय है (अर्थात् वह बाद में प्ररूपित किया जायेगा)। व्यावहारिक का वर्णन निम्न प्रकार है धान्य के पल्य के समान एक योजन प्रमाण दीर्घ, एक योजन प्रमाण विस्तार और एक योजन प्रमाण ऊर्ध्वता से यक्त तथा साधिक तीन योजन की परिधि वाला कोई पल्य हो। उस पल्य को एक, दो, तीन दिवस यावत् सात दिवस के उगे हुए बालानों से इस प्रकार से पूरित कर दिया जाए कि वे बालाग्र अग्नि से जल न सकें, वायु उन्हें उडा न सके, वे सड-गल न सकें. उनका विध्वंस भी न हो सके और उनमें दर्गन्ध भी उत्पन्न न हो सके। तदनन्तर उस पल्य में से सौ-सौ वर्ष के पश्चात् एक-एक बालाग्र निकालने पर जितने काल में वह पल्य उन बालाग्रों से रहित, रजरहित और निर्लेप एवं निष्ठित—पूर्ण रूप से खाली हो जाए, उतने काल को व्यावहारिक अद्धापल्योपम कहते हैं। दस कोटाकोटि व्यावहारिक अद्धापल्योपमों का एक व्यावहारिक सागरोपम होता है। १०५ ३८०. एएहिं वावहारिएहिं अद्धापलिओवम-सागरोवमेहिं किं पओयणं ? एएहिं जाव नत्थि किंचिप्पओयणं, केवलं तु पण्णवणा पण्णविजति । से तं वावहारिए अद्धापलिओवमे । [३८० प्र.] भगवन् ! व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? [३८० उ.] आयुष्मन् ! व्यावहारिक अद्धा पल्योपम एवं सागरोपम से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। ये केवल प्ररूपणा के लिए हैं। इस प्रकार से व्यावहारिक अद्धापल्योपम का स्वरूप जानना चाहिए। विवेचन— प्रस्तुत सूत्र में व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम के स्वरूप का निरूपण करते हुए इन दोनों के प्रयोजन का कथन किया है। इन दोनों के स्वरूप का निरूपण पूर्वोक्त व्यावहारिक उद्धार पल्योपम एवं सागरोपम के तुल्य ही है, किन्तु इतना अन्तर है कि व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम में एक-एक बालान को प्रत्येक समय न निकाल कर सौ-सौ वर्ष के बाद निकालने पर जितना समय लगता है उतना काल व्यावहारिक अद्धापल्योपम का है और दस कोटाकोटि व्यावहारिक अद्धापल्योपमों का एक व्यावहारिक अद्धासागरोपम होता है। इन व्यावहारिक अद्धा पल्योपम और सागरोपम का साक्षात् प्रयोजन तो कुछ नहीं है, लेकिन परम्परा रूप में सूक्ष्म अद्धा पल्योपम और सागरोपम का ज्ञान कराने में सहायक हैं। इसलिए इनकी प्ररूपणा की गई है। ३८१. से किं तं सुहुमे अद्धापलिओवमे ? सुहमे अद्धापलिओवमे से जहानामए पल्ले सिया—जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उर्दू उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय जाव भरिए वालग्गकोडीणं । तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेजाइं खंडाई कजति । ते णं वालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेजति भागमेत्ता सुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेजगुणा । ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेजा, नो वाऊ हरेजा, नो कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । ततो णं वाससते वाससते गते एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निदिए भवति, से तं सुहमे अद्धापलिओवमे ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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