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________________ नामाधिकारनिरूपण १५७ अणाउए, निराउए, खीणाउए- तद्भवसम्बन्धी आयु के क्षय होने पर भी जीव अनायुष्क कहलाता है। अतः ऐसे अनायुष्क का निराकरण करने के लिए- जिसका आयुकर्म निःशेष रूप से समाप्त हो चुका है ऐसे अनायुष्क का ग्रहण करने के लिए निरायुष्क पद दिया है। ऐसी निरायुष्क अवस्था जीव की शैलेशी दशा में हो जाती है। वहां संपूर्ण रूप से निसयुष्कता तो नहीं है किन्तु किंचिन्मात्र आयु अवशिष्ट होने पर भी उपचार से उसे निरायुष्क कहते हैं। अतः इस आशंका को दूर करने के लिए क्षीणायुष्क' पद रखा है, अर्थात् संपूर्ण रूप से जिसका आयुकर्म क्षीण हो चुकता है वही अनायुष्क, निरायुष्क नाम वाला कहलाता है। उपर्युक्त पदों की सार्थकता तो ज्ञानावरण आदि पृथक्-पृथक् कर्म के क्षय की अपेक्षा जानना चाहिए और आठों कर्मों के सर्वथा नष्ट होने पर निष्पन्न पदों की सार्थकता इस प्रकार है सिद्ध– समस्त प्रयोजन सिद्ध हो जाने से सिद्ध यह नाम निष्पन्न होता है। बुद्ध-बोध स्वरूप हो जाने से बुद्ध, मुक्त- बाह्य और आभ्यन्तर, परिग्रहबंधन से छूट जाने पर मुक्त, परिनिर्वृत्त — सर्व प्रकार से, सब तरफ से शीतीभूत हो जाने से परिनिर्वृत्त, अन्तकृत्- संसार के अंतकारी होने से अन्तकृत् और सर्वदुःखप्रहीणशारीरिक एवं मानसिक समस्त दु:खों का आत्यन्तिक क्षय हो जाने से सर्वदुःखप्रहीण नाम निष्पन्न होता है। इस प्रकार से क्षायिक और क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव की वक्तव्यता का आशय जानना चाहिए। क्षायोपशमिकभाव २४५. से किं तं खओवसमिए ? खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा खओवसमे १ खओवसमनिन्फन्ने य २ । [२४५ प्र.] भगवन् ! क्षायोपशमिकभाव का क्या स्वरूप है ? [२४५ उ.] आयुष्मन् ! क्षायोपशमिवभाव दो प्रकार का है। वह इस प्रकार—१. क्षयोपशम और २. क्षयोपशमनिष्पन्न। २४६. से किं तं खओवसमे ? खओवसमे चउण्हं घाइकम्माणं खओवसमेणं । तं जहा—नाणावरणिजस्स १ दंसणावरणिजस्स २ मोहणिजस्स ३ अंतराइयस्स ४ । से तं खओवसमे । [२४६ प्र.] भगवन् ! क्षयोपशम का क्या स्वरूप है ? [२४६ उ.] आयुष्मन् ! १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. मोहनीय और ४. अन्तराय, इन चार घातिकर्मों के क्षयोपशम को क्षयोपशमभाव कहते हैं। २४७. से किं तं खओवसमनिप्फन्ने ? खओवसमनिष्फन्ने अणेगविहे पण्णत्ते । तं जहा खओवसमिया आभिणिबोहियणाणलद्धी जाव खओवसमिया मणपजवणाणलद्धी, खओवसमिया मतिअण्णाणलद्धी खओवसमिया सुयअण्णाणलद्धी खओवसमिया विभंगणाणलद्धी, खओवसमिया चक्खुदंसणलद्धी एवमचक्खुदसणलद्धी ओहिदंसणलद्धी एवं सम्मइंसणलद्धी मिच्छादसणलद्धी सम्मामिच्छादसणलद्धी, खओवसमिया सामाइयचरित्तलद्धी एवं छेदोवट्ठावणलद्धी परिहारविसुद्धियलद्धी सुहुमसंपराइयलद्धी
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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