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________________ अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय २६७ [२२] (संजय राजर्षि)—मेरा नाम संजय है। मेरा गोत्र गौतम है। विद्या (श्रुत) और चरण (चारित्र) में पारंगत गर्दभालि' मेरे आचार्य हैं। विवेचन–तीन प्रश्नों का एक ही उत्तर में समावेश-पूर्वोक्त गाथा (सं. २१) में क्षत्रियमुनि द्वारा पांच प्रश्न पूछे गए हैं, किन्तु संजय राजर्षि ने प्रथम दो प्रश्नों का तो स्पष्ट उत्तर दिया है, किन्तु पिछले तीन प्रश्नों का एक ही उत्तर दिया है कि मेरे आचार्य (गुरु) गर्दभालि हैं, जो श्रुत-चारित्र में पारंगत हैं। संजय राजर्षि का आशय यह है कि गर्दभालि आचार्य के उपदेश से मैं प्राणातिपात आदि का सर्वथा त्याग करके मुनि बना हूँ, उनसे मैंने ग्रहण (शास्त्राध्ययन) और आसेवन दोनों प्रकार की शिक्षाएँ ग्रहण की हैं, श्रुत और चरित्र में पारंगत मेरे आचार्य ने इनका मुक्तिरूप फल बताया है, इसलिए मैं मुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से ही माहन (मुनि) बना हूँ। आचार्यश्री का जैसा मेरे लिए उपदेश-आदेश है, तदनुसार चलता हूँ, यही उनकी सेवा है और उन्हीं के कथानुसार मैं समस्त मुनिचर्या करता हूँ, यही मेरी विनीतता है। विजाचरण० : अर्थ-विद्या का अर्थ यहाँ श्रुतज्ञान है तथा चरण का अर्थ चारित्र है। निष्कर्ष—'माहन' पद से पंच महाव्रत रूप मूल गुणों की आराधकता, आचार्यसेवा से गुरुसेवा में परायणता एवं आचार्याज्ञा-पालन से तथा आचार्य के उपदेशानुसार ग्रहणशिक्षा एवं आसेवनशिक्षा में प्रवृत्ति करने से उत्तरगुणों की आराधकता उनमें प्रकट की गई है। क्षत्रियमुनि द्वारा क्रियावादी आदि के विषय में चर्चा-विचारणा २३. किरियं अकिरियं विणयं अन्नाणं च महामुणी। एएहिं चउहिं ठाणेहिं मेयन्ने किं पभासई॥ [२३] (क्षत्रियमुनि)-महामुनिवर ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान, इन चार स्थानों के द्वारा (कई एकान्तवादी) मेयज्ञ (तत्त्वज्ञ) असत्य (कुत्सित) प्ररूपणा करते हैं। ___ २४. इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुडे। __ विजाचरणसंपन्ने सच्चे सच्चपरक्कमे॥ [२४] (हमने अपने मन से नहीं;) बुद्ध-तत्त्ववेत्ता, परिनिर्वृत्त-उपशान्त, विद्या और चरण से सम्पन्न, सत्यवाक् और सत्यपराक्रमी ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने (भी) ऐसा प्रकट किया है। २५. पडन्ति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो। दिव्वं च गई गच्छन्ति चरित्ता धम्ममारियं॥ [२५] जो (एकान्त क्रियावादी आदि असत्प्ररूपक) व्यक्ति पाप करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं। जो मनुष्य आर्य धर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्य गति को प्राप्त करते हैं। २६. मायावुइयमेयं तु मुसाभासा निरत्थिया। ____संजममाणो वि अहं वसामि इरियामि य॥ १. (क) बृहवृत्ति, पत्र ४४२ (ख) प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३, पृ. १२७ २. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३, पृ. १२८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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