SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०७ द्वितीय परिशिष्ट : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण उठा "वह तो मेरी ही है, मैं भी उसका हूं, क्योंकि वह मुझ में अनुरक्त है।" इस अशुभ परिणाम के कारण वह अपने भण्डोपकरणों को ले उसी गांव में पहुंचा, जहां उसकी गृहस्थाश्रम की पत्नी थी। उसका विचार था कि यदि पत्नी जीवित होगी तो दीक्षा छोड़ दूंगा, अन्यथा नहीं। पत्नी ने दूर से ही आते देख अपने भूतपूर्व पति को तथा उसके मनोभाव को जान लिया, परन्तु वह इसे नहीं पहचान सका। अतः उसने पूछा-'अमुक की पत्नी मर गई या जीवित है ?' स्त्री ने सोचा—'अगर इसने दीक्षा छोड़ दी और पुनः गृहवास स्वीकार कर लिया, तो हम दोनों ही संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे।' अतः वह युक्तिपूर्वक बोली-'अब वह दूसरे की हो गई।' यह सुन उसकी चिन्तनधारा ने पुनः नया मोड़ लिया वास्तव में गुरुदेव का बताया हुआ मंत्र ठीक था— वह मेरी नहीं है, न मैं उसका हूं। उसका रागभाव दूर हो गया। वह पुनः संयम में स्थिर हो गया। वह विरक्तिभावपूर्वक बोला—'तो मैं वापस जाता हूँ।' इसी प्रकार यदि कभी किसी मनोज्ञ वस्तु के प्रति कामना या वासना जागृत हो जाए तो इसी चिन्तन-मंत्र से राग-भाव दूर करके संयम में आत्मा को सुप्रतिष्ठित करना चाहिए। —दशवै. अ. २, गा. ४, हारि. वृत्ति, पत्र ९४ (८) महासती राजीमती के प्रखर उपदेश से संयम में पुनः प्रतिष्ठित रथनेमि (तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं०) सोरठ देश के अन्तर्गत बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी द्वारका नगर में उस समय नौवें वासुदेव श्रीकृष्ण महाराज राज्य करते थे। उनके पिता वसुदेव के बड़े भाई समुद्रविजय थे। इनकी पटरानी शिवादेवी से भगवान् श्री अरिष्टनेमि का जन्म हुआ। यौवनवय में पदार्पण करने पर श्रीकृष्ण महाराज की प्रबल इच्छा से उनका विवाह उग्रसेन राजा की पुत्री राजीमती के साथ होना निश्चित हुआ। धूमधाम के साथ बरात लेकर जब वे विवाह के लिए श्वसुरगृह पधार रहे थे, तभी उन्होंने जूनागढ़ के पास बहुत पशुओं को बाड़े और पिंजरों में बंद देखा। उन पीड़ितों की करुण पुकार सुन कर भी अरिष्टनेमि ने जानते हुए भी जनता को बोध देने हेतु सारथी से पूछा—'ये पशु यहां किसलिए बंद किए गए हैं ?' सारथी ने कहा-'भगवन्! ये पशु आपके विवाह में सम्मिलित मांसाहारी बरातियों के भोजनार्थ यहां लाये गए हैं।' यह सुनते ही उनका चित्त अत्यन्त उदासीन हुआ। सोचा—मेरे विवाह के लिए इतने पशुओं का वध हो, यह मुझे अभीष्ट नहीं है। उनका चित्त विवाह से हट गया। उन्होंने समस्त आभूषण उतार कर सारथी को प्रीतिदानस्वरूप दे दिये और उन पशुओं को बन्धनमुक्त करा कर वापस घर लौट आए। एक वर्ष तक आपने करोड़ों स्वर्णमुद्राओं का दान देकर एक सहस्र पुरुषों के साथ स्वयं साधुवृत्ति ग्रहण की। तदनन्तर राजकन्या राजीमती भी अपने अविवाहित पति के वियोग के कारण संसार से विरक्त होकर उन्हीं के पदचिह्नों पर चलने के लिए तैयार हुई। राजीमती ने ७०० सहचरियों सहित उत्कट वैराग्यभाव से भागवती दीक्षा अंगीकार की। एक बार वे भगवान् श्री अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ रैवतक पर्वत पर जा रही थीं। रास्ते में अकस्मात् भयंकर
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy