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________________ दसवां अध्ययन : स-भिक्षु ३५७ अभिरुचि नहीं रखता), वही सद्भिक्षु है ॥ १३ ॥ [५३४] जो (साधु अपने) शरीर से परीषहों को जीत कर जातिपथ (जन्म-मरणरूप संसारमार्ग) से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्ममरण (-रूप संसार) को महाभय जान कर श्रमणवृत्ति के योग्य तपश्चर्या में रत रहता है, वही सद्भिक्षु है ॥१४॥ विवेचन–परीषहादि-विजेता साधुजीवन प्रस्तुत चार गाथाओं (५३१ से ५३४ तक) में आक्रोश आदि परीषह, भय, इन्द्रियविषय, देहासक्ति आदि पर विजय प्राप्त करने वाले आदर्श भिक्षु का जीवनचित्र प्रस्तुत किया गया ___'गामकंटए' आदि पदों के विशेषार्थ गामकंटए : दो अर्थ (१) ग्राम–इन्द्रियों के समूह के लिए कांटों के समान चुभने वाले, अथवा (२) ग्राम का अर्थ इन्द्रिय-विषयसमूह भी है, अतः कांटे के समान चुभन वाले इन्द्रिय-विषयसमूह को। जिस प्रकार शरीर में लगे हुए कांटे पीड़ित करते है, उसी प्रकार अनिष्ट शब्द आदि विषय श्रोत्रादि इन्द्रियों में प्रविष्ट होने पर उन्हें (इन्द्रियों को) दुःखदायी लगते हैं। ___ अक्कोस-पहार-तज्जणाओ—आक्रोश—गाली देना, झिड़कना, आदि क्षुद्रवचन। प्रहार–चाबुक आदि से पीटना और तर्जना-त्यौरी चढ़ाकर अंगुलि या बैंत आदि दिखा कर झिड़कना अथवा ताने मारना। भयभेरवसद्दसंपहासे भयभैरव शब्द का अर्थ है अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाले शब्द । संप्रहास का अर्थ है—प्रहास या अट्टहास सहित। अथवा वैताल आदि के भय-भैरव (अतिदारुण भयोत्पादक) अट्टहास आदि शब्द। पडिमं पडिवज्जिया मसाणे प्रतिमा शब्द यहां मासिकी आदि भिक्षुप्रतिमा, विशिष्ट अभिग्रह (प्रतिज्ञा) अथवा कायोत्सर्ग अर्थ में है। कायोत्सर्गमुद्रा में स्थित होकर श्मशान में ध्यान करने और विशिष्ट प्रतिमा ग्रहण करने की परम्परा जैन साधुओं में रही है। विविहगुण-तवोरए इस पंक्ति का आशय है कि श्मशान में रह कर न डरना ही कोई खास बात नहीं है, किन्तु साथ ही उसे विविध गणों और तपस्याओं में सतत रत भी रहना चाहिए। ताकि घोरातिघोर उपसर्गों के होने पर शरीर पर किसी प्रकार का ममत्वभाव न रह सके। इसलिए आगे कहा गया है—'सरीरं नाभिकंखए।' भिक्षुप्रतिमाओं का विशेष वर्णन दशाश्रुतस्कन्ध में है। असई वोसठ्ठचत्तदेहे—व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह उसे कहते हैं, जिसने शरीर का व्युत्सर्ग और त्याग किया हो व्युत्सर्ग और त्याग दोनों समानार्थक होते हुए भी आगमों में ये शब्द विशेष अर्थ में प्रयुक्त हैं। व्युत्सृष्टदेह का अर्थ है—अभिग्रह और प्रतिमा स्वीकार करके जिसने शारीरिक क्रिया का त्याग कर दिया है और त्यक्तदेह का अर्थ शारीरिक परिकर्म (मर्दन, स्नान और विभूषा आदि) का जिसने परित्याग कर दिया है। व्युत्सृष्टदेह का अर्थ जिनदासचूर्णि में शारीरिक अस्थिरता से निवृत्त होने के लिए स्थान (कायोत्सर्ग), मौन और ध्यानपूर्वक शरीर का व्युत्सर्ग करना किया गया है। हरिभद्रसूरि ने अर्थ किया है किसी प्रकार के प्रतिबन्ध के बिना शरीर का विभूषादि परिकर्म जिसने छोड़ दिया है, वह। भिक्षु को बार-बार देह का व्युत्सर्ग करना चाहिए, इसका आशय है—उसे काया का स्थिरीकरण या कायोत्सर्ग और उपसर्ग सहने का अभिग्रह करते रहना चाहिए।१३ १३. (क) ग्रामो विषयशब्दाऽत्रभूतेन्द्रियगुणाद् व्रजे । —अभिधानचिन्तामणि ३/९५ (ख) गामगहणेण इंदियगहणं कयं । जहा कंटगा सरीरानुगता सरीरं पीडयंति तहा अणिट्ठा विसयकंटगा सोताइंदियगामे अणुप्पविट्ठा तमेव इंदियं पीडयंति । तज्जणाए जहा एते समणा किवणा कम्मभीता पव्वतिया, एवमादि । —जिनदासचूर्णि, पृ. ३४३
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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