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________________ आठवीं दशा ] [ ७१ है । अतः इस आठवीं दशा को संक्षिप्त पाठ वाली कहने की अपेक्षा आचारांग के सातवें अध्ययन के समान विलुप्त कहना ही उचित प्रतीत होता है। यहाँ प्रस्तुत संस्करण में जो संक्षिप्त मूल पाठ है वह पर्युषणाकल्पसूत्र का प्रथम सूत्र और अंतिम सूत्र लेकर संकलित किया हुआ है । यह परम्परा का पालन मात्र है । 'आगमों के सूत्रपाठ का एक अक्षर भी आगे पीछे, कम-ज्यादा, इधर-उधर करना बहुत बड़ा दोष - ज्ञानातिचार माना गया है। फिर भी समय-समय पर अनेक ऐसे प्रक्षेप आगमों में हुए हैं । उनमें का यह भी एक उदाहरण है। यहां जो कुछ लिखा है वह अपनी अल्प जानकारी एवं सामान्य अनुभवों के 'अनुसार लिखा है, विद्वान् विशेषज्ञों को इसमें जो यथार्थ लगे उसे ही समझने का एवं धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए । उपलब्ध कल्पसूत्र का २९१ वां अन्तिम उपसंहार सूत्र जो है, उसका भावार्थ यह है 'यह सम्पूर्ण (१२०० श्लोकप्रमाण का पर्युषणाकल्पसूत्र) अध्ययन (आठवीं दशा) भगवान् महावीर स्वामी ने राजगृह नगर में देवयुक्त परिषद् में बारम्बार कहा।' इस उपसंहार सूत्र को मनीषी पाठक पढ़कर आश्चर्य करेंगे कि भगवान् के जीवन का सारा वर्णन उनके ही मुख से परिषद् में कहलाना और निर्वाण के ९८० वर्ष या ९९३ वर्ष बीतने का कथन, स्थविरों की वंदना के पाठ सहित स्थविरावली तथा असंगत पाठों से युक्त समाचारी को महावीर के श्रीमुख से कहलवाना और उसी आठवीं दशा को १४ पूर्वी भद्रबाहुरचित कहना कितना बेतुका प्रयास है। जिसे कि किसी भी तरह सत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता है। यह कल्पसूत्र भगवान् महावीर ने राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में बारम्बार कहा था, तो किस दिन कहा ? क्या एक ही दिन में कहा या अलग-अलग दिनों में कहा ? और बारम्बार क्यों कहा ? - इत्यादि प्रश्नों का सही समाधान कुछ नहीं मिल सकता है । नियुक्तिकार ने इस दशा के जिन-जिन विषयों की व्याख्या की है उनमें भी उक्त प्रश्नों का यथार्थ निर्णय नहीं हो पाता। निर्युक्ति की ६१वीं उपसंहार - गाथा है उसके बाद उपलब्ध ६ गाथाओं को भी मौलिक नहीं कहा जा सकता। ६१ गाथाओं में आये विषयों का सारांश इस प्रकार है १. साधु-साध्वी को वर्षावास के एक महीना बीस दिन बीतने पर अर्थात् भादवा सुदी पंचमी को पर्युषणा (संवत्सरी) करनी चाहिए । २. साधु-साध्वी जिस मकान में चातुर्मास निवास करें, वहाँ से उन्हें प्रत्येक दिशा में आधा कोस सहित आधा योजन से आगे नहीं जाना चाहिए । ३. चातुर्मास में साधु-साध्वी को विगय का सेवन नहीं करना चाहिए। रोगादि कारण से विगय सेवन करना हो तो आचार्यादि की आज्ञा लेकर ही करना चाहिए । ४. वर्षावास में साधु-साध्वी को शय्या, संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है । अर्थात् जीवरक्षा हेतु आवश्यक समझना चाहिए ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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