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________________ [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२७७ श्रेणी के अनुसार होता है, विश्रेणी में गमन नहीं होता। इस कारण नारकों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और वायुकायिकों का पूर्वोक्त आयाम क्षेत्र एक दिशा में ही समझना चाहिए, विदिशा में नहीं, किन्तु भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव तथा मनुष्य स्वेच्छापूर्वक विहार करने वाले हैं-स्वच्छन्द हैं और विशिष्टलब्धि से सम्पन्न भी होते हैं, अतः वे विशिष्ट प्रयत्न द्वारा विदिशा में भी आत्मप्रदेशों का दण्ड निकालते हैं। इसी दृष्टि से कहा गया है - ‘णवरं एगदिसिं विदिसिं वा' अर्थात् – असुरकुमारादि भवनवासी आदि चारों निकायों के देव और मनुष्य एक दिशा में भी पूर्वोक्त क्षेत्र को आपूर्ण और व्याप्त करते हैं।' (२) पूर्वोक्त प्रमाण वाला क्षेत्र, विग्रहगति से उत्पत्तिदेश पर्यन्त एक समय, दो समय अथवा तीन समय में विग्रहगति से आपूर्ण एवं व्याप्त होोत है। इस प्रकार विग्रहगति की अपेक्षा से मरणसमय से लेकर उत्पत्तिदेश पर्यन्त पूर्वोक्त प्रमाण क्षेत्र का आपूरण अधिक से अधिक तीन समय में हो जाता है, उसके चौथा समय नहीं लगता। वैक्रियसमुद्घातगत वायुकायिक भी प्रायः त्रसनाडी में उत्पन्न होता है और त्रसनाडी की विग्रहगति अधिक से अधिक तीन समय की होती है। इसलिए यहाँ कहा गया है, कि इतने (एक, दो या तीन) समय में पूर्वोक्त प्रमाण वाला क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है।' __ (३-४-५-६) इसके पश्चात् क्रियासम्बन्धी चार तथ्यों का प्ररूपण वेदनासमुद्घात सम्बन्धी कथन के समान ही समझना चाहिए। तैजससमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा २१६५. जीवे णं भंते ! तेयगसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे०? एवं जहेव वेउब्वियसमुग्घाए (सु० २१५९-६४) तहेव। णवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, सेसं तं चेव। एवं जाव वेमाणियस्स, णवरं पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स एगदिसिं एवतिए खेत्ते अफुण्णे०? [२१६५ प्र.]भगवन् ! तैजसमुद्घात से समवहत जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर) निकालता है, भगवन् ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण और कितना क्षेत्र स्पृष्ट (व्याप्त) होता हैं ? ___ [२१६५ उ.] गौतम! जैसे (सू. २१५९-६४ में) वैक्रियसमुद्घात के विषय में कहा है, उसी प्रकार तैजसमुद्घात के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि तैजससमुद्घात निर्गत पुद्गलों में लम्बाई में जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है। (तैजससमुद्घातसम्बन्धी) शेष वक्तव्यता वैक्रियसमुद्घात की वक्तव्यता के समान है। इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एक ही दिशा में १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५२ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०९३-१०९४ २. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४४१
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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