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________________ [२७५ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा २१५९. [१] जीवे णं भंते! वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फुडे ? __गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेण जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं संखेजाइं जोयणाई एगदिसिं विदिसिं वा एवतिए अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे। __ [२१५९-१ प्र.] भगवन् ! वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ जीव, समवहत होकर (वैक्रिययोग्य शरीर के अन्दर रहे हुए) जिन पुद्गलों को बाहर निकालता है (आत्मप्रदेशों से पृथक् करता है), उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण होता है, कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? [२१५९-१ उ.] गौतम! जितना शरीर का विस्तार और बाहल्य (स्थूलत्व) है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य 'अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा या विदिशा में आपूर्ण होता है और उतना ही क्षेत्र व्याप्त होता है। [२] से णं भंते! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे ? गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसइएण वा विग्गहेण एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे। सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि। ___[२१५९-२ प्र.] भगवन् ! वह (पूर्वोक्त) क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण होता है और कितने काल में स्पृष्ट होता [२१५९-२ उ.] गौतम! एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से, अर्थात् इतने काल से (वह क्षेत्र) आपूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है। शेष सब कथन पूर्ववत् 'पाँच' क्रियाएँ लगती हैं, यहां तक कहना चाहिए। २१६०. एवं णेरइए वि। णवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभागं, उक्कोसेणं संखेजाई जोयणाई एगदिसिं एवतिए खेत्ते०। केवतिकालस्स० तं चेव जहा जीवपए (सु. २१५९)। __ [२१६०] इसी प्रकार नैरयिकों की (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी वक्तव्यता) भी कहनी चाहिए। विशेष यह है कि लम्बाई में जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यातयोजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है । यह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता हैं ?, इसके उत्तर में (सू. २१५९ में उक्त समुच्चय) जीवपद के समान कथन किया गया है । २१६१. एवं जहा णेरइयस्स (सु. २१६०) तहा असुरकुमारस्स। णवरं एगदिसिं विदिसिं वा। एवं जाव थणियकुमारस्स। ___[२१६१] जैसे नारक का वैक्रियसमुद्घातसम्बन्धी कथन किया है, वैसे ही असुरकुमार का समझना चाहिए। विशेष यह है कि एक दिशा या विदिशा में (उतना क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है।) इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त ऐसा ही कथन समझना चाहिए।
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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