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________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] - [५१७ [१५५६] तैजस और कार्मण (शरीर के पुद्गलों का चय) [सू. १५५३ में उक्त] औदारिकशरीर के (पुद्गलों के चय के) समान (समझना चाहिए ।) १५५७. ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसिं पोग्गला उवचिजति ? गोयमा ! एवं चेव, जाव कम्मगसरीरस्स । [१५५७ प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर के पुद्गलों का उपचय कितनी दिशाओं से होता है ? [उ.] गौतम ! (जैसे चय के विषय में कहा है,) इसी प्रकार (उपचय के विषय में भी औदारिकशरीर • से लेकर) कार्मणशरीर (तक कहना चाहिए ।) १५५८. एवं उवचिजति (?) अवचिजति । [१५५८] (औदारिकशरीर आदि पांचों शरीरों के पुद्गलों का जिस प्रकार)उपचय होता है, उसी प्रकार (उनका) अपचय भी होता है । विवेचन - पांचों शरीरों के पुद्गलों के चय, उपचय-अपचय-सम्बन्धी विचारणा - प्रस्तुत चतुर्थ द्वार में ६ सूत्रों (१५५३ से १५५८ तक) में औदारिक आदि पांचों शरीरों के पुद्गलों के चय, उपचय एवं अपचय से सम्बन्धित विचारणा की गई है । चय, उपचय और अपचय की परिभाषा-चय का अर्थ है-पुद्गलों का संचित होना-समुदित या एकत्रित होना । उपचय का अर्थ है-प्रभूतरूप से चय होना, बढना, वृद्धिंगत होना । अपचय का अर्थ हैपुद्गलों का ह्रास होना, घट जाना या हट जाना । औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों के निर्माण, वृद्धि और ह्रास के लिए पुद्गलों का स्वयं चंय और उपचय किसी प्रकार का व्याघात (रूकावट या बाधा) न हो तो छहों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधोदिशा) से आकर होता है और पुद्गल स्वयं अपचित होते हैं । आशय यह है कि त्रसनाडी के अन्दर या बाहर स्थित औदारिक, तैजस एवं कार्मण शरीर के धारक जीव जब एक भी दिशा अलोक, से व्याहत (रुकी हुई) नहीं होती तब नियम से छहों दिशाओं से पुद्गलों का आगमन या निर्गमन होता है । वैक्रियशरीर और आहारकशरीर त्रसनाडी में ही सम्भव होते हैं, अन्यत्र नहीं । वहाँ किसी प्रकार का अलोक का व्याघात नहीं होता, इस कारण उनके लिए पुद्गलों का चय-उपचय नियम से छहों दिशाओं से होता है।' किन्तु औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर के पुद्गलों के आगमन में व्याघात हो, अर्थात् अलोक आ जाने से प्रतिस्खलन या रुकावट हो तो कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से उनके पुद्गलों का चय, १. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र ४३२ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ.८०९
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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