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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
स्त्रियों में चारित्र का प्रकर्ष न मानना और फलतः उन्हें मुक्ति की अधिकारिणी न मानना तर्क एवं आगमसम्मत नहीं है।
९. पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुष-शरीर में स्थित होकर जो सिद्ध हुए हों वे पुरुषलिंगसिद्ध हैं।
१०. नपुंसकलिंगसिद्ध-स्त्री-पुरुष से भिन्न नपुंसक शरीर के रहते जो सिद्ध हों वे नपुंसकलिंगसिद्ध हैं। कृत्रिम नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं, जन्मजात नपुंसक सिद्ध नहीं होते।
११. स्वलिंगसिद्ध-जो जैनमुनि के वेष रजोहरणादि के रहते हुए सिद्ध हुए हों, वे स्वलिंगसिद्ध
१२. अन्यलिंगसिद्ध-जो परिव्राजक, संन्यासी, गेरुआ वस्त्रधारी आदि अन्य मतों के वेष के रहते सिद्ध हुए हों, वे अन्यलिंग सिद्ध हैं।
१३. गृहिलिंगसिद्ध-जो गृहस्थ के वेष में रहते हुए सिद्ध हुए हों, वे गृहिलिंगसिद्ध हैं। जैसेमरुदेवी माता।
१४. एकसिद्ध-जो एक समय में अकेले ही सिद्ध हुए हो, वे एकसिद्ध हैं।
१५. अनेकसिद्ध-जो एक समय में एक साथ अनेक सिद्ध हुए हों वे अनेकसिद्ध हैं। सिद्धान्त में एक समय में अधिक से अधिक १०८ जीव सिद्ध हो सकते हैं।
इस सम्बन्ध में सिद्धान्त की एक संग्रहणी ' गाथा में कहा गया है
आठ समय तक निरन्तर सिद्ध होते हैं तब एक से लगाकर बत्तीस पर्यन्त सिद्ध होते हैं । अर्थात् प्रथम समय में जघन्यतः एक, दो और उत्कृष्ट से बत्तीस होते हैं, दूसरे समय में भी इसी तरह एक से लेकर बत्तीस सिद्ध होते हैं। इस प्रकार आठवें समय में भी एक से लेकर बत्तीस सिद्ध होते हैं। इसके बाद अवश्य अन्तर पड़ेगा।
जब तेतीस से लगाकर अड़तालीस पर्यन्त सिद्ध होते हैं तब सात समय पर्यन्त ऐसा होता है। इसके बाद अवश्य अन्तर पड़ता है।
जब उनपचास से लेकर साठ पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब छह समय तक ऐसा होता है। बाद में अन्तर पड़ता है।
जब इकसठ से लगाकर बहत्तर पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब पाँच समय तक ऐसा होता है। बाद में अन्तर पड़ता है।
जब तिहत्तर से लगाकर चौरासी पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब चार समय तक ऐसा होता है। बाद में अवश्य अन्तर पड़ता है.
१. बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोद्धव्वा। चुलसीइ छन्नठइ उ दुरहियमठुत्तरसयं च ॥ बाद अवश्य अन्तर पड़ता है।