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________________ २७४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अगुरु आदि काष्ठ से लिये गये हैं। कपूर आदि निर्यास हैं। पत्र से जातिपत्र, तमालपत्र, का ग्रहण है। पुष्प से प्रियंगु, नागर का ग्रहण है। फल से जायफल, इलायची, लौंग आदि का ग्रहण हुआ है। ये सात मोटे रूप में गंधांग हैं। इन सात गंधांगों को पांच वर्ण से गुणित करने पर पैंतीस भेद हुए। ये सुरभिगंध वाले ही हैं अतः एक से गुणित करने पर (३५ x १= ३५) पैंतीस ही हुए। एक-एक वर्णभेद में द्रव्यभेद से पांच रस पाये जाते हैं अतः पूर्वोक्त ३५ को ५ से गुणित करें पर १७५ (३५ x ५= १७५) हुए। वैसे स्पर्श आठ होते हैं किन्तु यथोक्तरूप गंधांगों में प्रशस्त स्पर्शरूप मृदु-लघु-शीत-उष्ण ये चार स्पर्श ही व्यवहार से परिगणित होते हैं अतएव पूर्वोक्त १७५ भेदों को ४ से गुणित करने पर ७०० (१७५ x ४ = ७००) गंधांगों की अवान्तर जातियां होती हैं । इसके पश्चात् पुष्पों की कुलकोटि के विषय में प्रश्न किया गया है। उत्तर में प्रभु ने कहा कि फूलों की १६ लाख कुलकोटियां हैं। जल में उत्पन्न होने वाले कमल आदि फूलों की चार लाख कुलकोटि हैं। कोरण्ट आदि स्थलज फूलों की चार लाख कुलकोटि (उपजातियां) हैं। महुबा आदि महावृक्षों के फूलों की चार लाख कुलकोटि हैं और जाति आदि महागुल्मों के फूलों की चार लाख कुलकोटी हैं। इस प्रकार फूलों की सोलह लाख कुलकोटि गिनाई हैं। वल्लियों के चार प्रकार और चारसौ उपजातियां कही हैं । मूल रूप से वल्लियों के चार प्रकार हैं और अवान्तर जातिभेद से चारसौ प्रकार हैं। चार प्रकारों की स्पष्टता उपलब्ध नहीं है। मूल टीकाकार ने भी इनकी स्पष्टता नहीं की है। लता के मूलभेद आठ और उपजातियां आठसौ हैं हरितकाय के मूलतः तीन प्रकार और अवान्तर तीनसौ भेद हैं। हरितकाय के तीन प्रकार हैं-जलज, स्थलज और उभयज। प्रत्येक की सौ-सौ उपजातियां हैं, इसलिए हरितकाय के तीनसौ अवान्तर भेद कहे हैं। बैंगन आदि बीट वाले फलों के हजार प्रकार कहे हैं और नालबद्ध फलों के भी हजार प्रकार हैं। ये सब तीन सौ ही प्रकार और अन्य भी तथाप्रकार के फलादि सब हरितकाय के अन्तर्गत आते हैं। हरितकाय वनस्पतिकाय के अन्तर्गत और वनस्पति स्थावरकाय में और स्थावरकाय का जीवों में समावेश हो जाता है। इस प्रकार सूत्रानुसार स्वयं समझने से या दूसरों के द्वारा समझाया जाने से अर्थालोचन रूप से विचार करने से, युक्ति आदि द्वारा गहन चिन्तन करने से, पूर्वापर पर्यालोचन से सब संसारी जीवों का इन दो-त्रसकाय १. मूलतयकट्ठनिज्जासपत्तपुप्फफलमेव गंधंगा। वण्णादुत्तरभेया गंधरसया मुणेयव्वा ॥१॥ अस्य व्याख्यानरूपं गाथाद्वयंमुत्थासुवण्णछल्ली अगुरु वाला तमालपत्तं च । तह य पियंगु जाईफलं च जाईए गंधंगा॥१॥ गुणणाए सत्तसया पंचहिं वण्णेहि सुरभिगंधेणं। रसपणएणं तह फासेहिं य चउहिं पसत्थेहिं ॥२॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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