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________________ तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन १८५ २६१– प्रदेशी राजा के इस उपालंभ को सुनने के पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा ___ हे प्रदेशी! जानते हो कि कितनी परिषदायें कही गई हैं ? प्रदेशी—जी हां जानता हूं, चार परिषदायें कही हैं—१. क्षत्रियपरिषदा, २. गाथापतिपरिषदा, ३. ब्राह्मणपरिषदा और ४. ऋषिपरिषदा। ___ केशी कुमारश्रमण—प्रदेशी! तुम यह भी जानते हो कि इन चार परिषदाओं के अपराधियों के लिए क्या दंडनीति बनाई गई है ? प्रदेशी–हां जानता हूं। जो क्षत्रिय-परिषद् का अपराध-अपमान करता है, उसके या तो हाथ काट दिये जाते हैं अथवा पैर काट दिये जाते हैं या शिर काट दिया जाता है, अथवा उसे शूली पर चढ़ा देते हैं या एक ही प्रहार से या कुचलकर प्राणरहित कर दिया जाता है—मार दिया जाता है। ___जो गाथापति-परिषद् का अपराध करता है, उसे घास से अथवा पेड़ के पत्तों से अथवा पलाल-पुआल से लपेट कर अग्नि में झोंक दिया जाता है। जो ब्राह्मणपरिषद का अपराध करता है, उसे अनिष्ट, रोषपूर्ण, अप्रिय या अमणाम शब्दों से उपालंभ देकर अग्नितप्त लोहे से कुंडिका चिह्न अथवा कुत्ते के चिह्न से लांछित-चिह्नित कर दिया जाता है अथवा निर्वासित कर दिया जाता है, अर्थात् देश से निकल जाने की आज्ञा दी जाती है। जो ऋषिपरिषद् का अपमान-अपराध करता है, उसे न अति अनिष्ट यावत् न अति अमनोज्ञ शब्दों द्वारा उपालंभ दिया जाता है। केशी कुमारश्रमण—इस प्रकार की दंडनीति को जानते हुए भी हे प्रदेशी ! तुम मेरे प्रति विपरीत, परितापजनक, प्रतिकूल, विरुद्ध, सर्वथा विपरीत व्यवहार कर रहे हो! __२६२- तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी—एवं खलु अहं देवाणुप्पिएहिं पढमिल्लुएणं चेव वागरणेण संलत्ते, तए णं ममं इमेयारूवे अज्झथिए जाव संकप्पे समुपज्जित्था—जहा जहा णं एयस्स पुरिसस्स वामं वामेणं जाव विवच्चासं विवच्चासेणं वट्टिस्सामि तहा तहा णं अहं नाणं च नाणोवलंभं च करणं च करणोवलंभं च दंसणं च दंसणोवलंभं च जीवं च जीवोवलंभं च उवलभिस्सामि, तं एएणं कारणेणं अहं देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाव विवच्वासं विवच्चासेणं वट्टिए । २६२– तब प्रदेशी राजा ने अपनी मनोभावना व्यक्त करते हुए केशी कुमार श्रमण से कहा—बात यह है— भदन्त ! मेरा आप देवानुप्रिय से जब प्रथम ही वार्तालाप हुआ तभी मेरे मन में इस प्रकार का विचार यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि जितना-जितना और जैसे-जैसे मैं इस पुरुष के विपरीत यावत् सर्वथा विपरीत व्यवहार करूंगा, उतना-उतना और वैसे-वैसे मैं अधिक-अधिक तत्त्व को जानूंगा, ज्ञान प्राप्त करूंगा, चारित्र को, चारित्रलाध को, तत्त्वार्थश्रद्धा रूप दर्शन–सम्यक्त्व को, सम्यक्त्वलाभ को, जीव को, जीव के स्वरूप को समझ सकूँगा। इसी कारण आप देवानुप्रिय के प्रति मैंने विपरीत यावत् अत्यत विरुद्ध व्यवहार किया है। २६३- तए णं केसी कुमारश्रमणे पएसीरायं एवं वयासी
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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