SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ औपपातिकसूत्र भगवान् महावीर के श्रमण यों विविध रूप में रस- परित्याग के अभ्यासी थे । काय - क्लेश क्या है— उसके कितने प्रकार हैं ? काय - क्लेश अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे- १. स्थानस्थितिक—एक ही तरह से खड़े या एक ही आसन से बैठे रहना, २. उत्कुटुकासनिक — उकडू आसन से बैठना — पुट्ठों को भूमि पर न टिकाते हुए केवल पाँवों के बल पर बैठने की स्थिति में स्थिर रहना, साथ ही दोनों हाथों की अंजलि बाँधे रखना, ३. प्रतिमास्थायी — मासिक आदि द्वादश प्रतिमाएँ स्वीकार करना, ४ . वीरासनिकवीरासन में स्थित रहना — पृथ्वी पर पैर टिकाकर सिंहासन के सदृश बैठने की स्थिति में रहना, उदाहरणार्थ जैसे कोई पुरुष सिंहासन पर बैठा हुआ हो, उसके नीचे से सिंहासन निकाल लेने पर वह वैसी ही स्थिति में स्थिर रहे, उस में स्थित रहना, ५. नैषधिक— पुट्ठे टिकाकार या पलाथी लगाकर बैठना, ६ . आतापक- -सूर्य (धूप) आदि की आतापना लेना, ७. अप्रावृतक — देह को कपड़े आदि से नहीं ढँकना, ८. अकण्डूयक—खुजली चलने पर भी देह को नहीं खुजलाना, ९. अनिष्ठीवक थूक आने पर भी नहीं थूकना तथा १०. सर्वगात्र - परिकर्म - विभूषा - विप्रमुक्त-— देह के सभी संस्कार, सज्जा, विभूषा आदि से मुक्त रहना । यह काय-क्लेश का विस्तार है । भगवान् महावीर के श्रमण उक्त रूप में काय-क्लेश तप का अनुष्ठान करते थे । विवेचन — काय - क्लेश के अन्तर्गत कहीं कहीं नैषधिक (नेसज्जिए) के पश्चात् दण्डायतिक (दंडायइए) तथा लकुटशायी (लउडसाई) पद और प्राप्त होते हैं । दण्डायतिक का अर्थ दण्ड की तरह सीधा लम्बा होकर स्थित रहना है। लकुटशायी का अर्थ लकुट वक्र काष्ठ या टेढ़े लक्कड़ की तरह सोना, स्थित रहना है, अर्थात् मस्तक को तथा दोनों पैरों की एड़ियों को जमीन पर टिकाकर, देह के मध्य भाग को ऊपर उठाकर सोना, स्थित होना लकुटशयन है। ऐसा करने से देह वक्र काष्ठ की तरह टेढ़ी हो जाती है। इस तप को सम्भवतः काय-क्लेश नाम इसलिए दिया गया कि बाह्य दृष्टि से देखने पर यह क्लेशकर प्रतीत होता है, जन-साधारण के लिए ऐसा है भी पर आत्मरत साधक, जो शरीर को अपना नहीं मानता, जो प्रतिक्षण आत्माभिरुचि, आत्मपरिष्कार एवं आत्ममार्जन में तत्पर रहता है, ऐसा करने में देह - परिताप के बावजूद कष्ट नहीं मानता, उसके परिणामों में इतनी तीव्र आत्मोन्मुखता तथा दृढ़ता होती है । यदि उसके क्लेशात्मक अनुभूति हो तो फिर वह उपक्रम तप नहीं रहता, देह के साथ हठ हो जाता है। आत्मानुभूति - शून्य हठयोग से विशेष लाभ नहीं होता । प्रतिसंलीनता प्रतिसंलीनता क्या है—वह कितने प्रकार की है ? प्रतिसंलीनता चार प्रकार की बतलाई गई है—– १. इन्द्रियप्रतिसंलीनता — इन्द्रियों की चेष्टाओं का निरोध, गोपन, २. कषाय- प्रतिसंलीनता — क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों या आवेगों का निरोध, गोपन, ३. योग- प्रतिसंलीनता —–— कायिक, वाचिक तथा मानसिक प्रवृत्तियों को रोकना, ४ . विविक्त- शयनासन - सेवनता— एकान्त स्थान में निवास करना । इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता — इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता क्या है—वह कितने प्रकार की है ? इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता पांच प्रकार की बतलाई गई है, जो इस प्रकार है- १. श्रोत्रेन्द्रिय - विषय - प्रचार निरोध — कानों के विषय शब्द में प्रवृत्ति का निरोध शब्दों को न सुनना अथवा श्रोत्रेन्द्रिय को शब्दरूप में प्राप्त प्रिय-अप्रिय, अनुकूल-प्रतिकूल
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy