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________________ [ ७८ ] [ प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. २ अनिच्छनीय - प्रकमनीय, काक के समान अनिष्ट स्वर वाले, धीमी और फटी हुई आवाज वाले, विहिंस्य - दूसरों के द्वारा विशेष रूप से सताये जाने वाले, जड़, वधिर, अंधे, गूंगे और अस्पष्ट उच्चारण करने वाले - तोतली बोली बोलने वाले, अमनोज्ञ तथा विकृत इन्द्रियों वाले, जाति, कुल, गौत्र तथा कार्यों से नीच होते हैं । उन्हें नीच लोगों का सेवक - दास बनना पड़ता है । वे लोक में गर्दा के पात्र होते हैं - सर्वत्र निन्दा एवं धिक्कार प्राप्त करते हैं । वे भृत्य - चाकर होते हैं और सदृश - असमान - विरुद्ध आचार-विचार वाले लोगों के आज्ञापालक या द्वेषपात्र होते हैं । वे दुर्बुद्धि होते हैं अतः लौकिक शास्त्र - महाभारत, रामायण आदि, वेद – ऋग्वेद आदि, आध्यात्मिक शास्त्र - कर्मग्रन्थ तथा समय - आगमों या सिद्धान्तों के श्रवण एवं ज्ञान से रहित हैं । वे धर्मबुद्धि से रहित होते हैं । उस अशुभ या अनुपशान्त श्रसत्य की अग्नि से जलते हुए वे मृषावादी अपमान, पीठ पीछे होने वाली निन्दा, आक्षेप - दोषारोपण, चुगली, परस्पर की फूट अथवा प्रेमसम्बन्धों का भंग आदि की स्थिति प्राप्त करते हैं । गुरुजनों, बन्धु बान्धवों, स्वजनों तथा मित्रजनों के तीक्ष्ण वचनों से अनादर पाते हैं । अमनोरम, हृदय और मन को सन्ताप देने वाले तथा जीवनपर्यन्त कठिनाई से मिटने वाले - जिनका प्रतीकार सम्पूर्ण जीवन में भी कठिनाई से हो सके या न हो सके ऐसे अनेक प्रकार के मिथ्या आरोपों को वे प्राप्त करते हैं । अनिष्ट प्रप्रिय, तीक्ष्ण, कठोर और मर्मवेधी वचनों से तर्जना, भिड़कियों और धिक्कार - तिरस्कार के कारण दीन मुख एवं खिन्न चित्त वाले होते हैं । वे खराब भोजन वाले और मैले कुचेले तथा फटे वस्त्रों वाले होते हैं, अर्थात् मृषावाद के परिणामस्वरूप उन्हें न अच्छा भोजन प्राप्त होता है, न पहनने — प्रोढने के लिए अच्छे वस्त्र ही नसीब होते हैं । उन्हें निकृष्ट वस्ती में क्लेश पाते हुए अत्यन्त एवं विपुल दु:खों की अग्नि में जलना पड़ता है। उन्हें न तो शारीरिक सुख प्राप्त होता है और न मानसिक शान्ति ही मिलती है । विवेचन - यहाँ मृषावाद के दुष्फल का लोमहर्षक चित्र उपस्थित किया गया है । प्रारम्भ में कहा गया है कि मृषावाद के फल को नहीं जानने वाले अज्ञान जन मिथ्या भाषण करते हैं । वास्तव में जिनको असत्यभाषण के यहाँ प्ररूपित फल का वास्तविक ज्ञान नहीं है अथवा जो जान कर भी उस पर पूर्ण प्रतीति नहीं करते, वे भी अनजान की श्रेणी में ही परिगणित होते हैं । हिंसा का फल -विपाक बतलाते हुए शास्त्रकार ने नरक और तिर्यंच गति में प्राप्त होने वाले दुःखों का विस्तार से निरूपण किया है । मृषावाद का फल ही दीर्घकाल तक नरक और तिर्यंच गतियों में रहकर अनेकानेक भयानक दुःखों को भोगना बतलाया गया है । अतः यहाँ भी पूर्ववर्णित दुःखों को समझ लेना चाहिए । सत्यभाषण को साधारण जन सामान्य या हल्का दोष मानते हैं और साधारण-सी स्वार्थसिद्धि के लिए, दूसरों को धोखा देने के लिए, क्रोध से प्रेरित होकर, लोभ के वशीभूत होकर, भय के कारण अथवा हास्य-विनोद में लीन होकर असत्य भाषण करते हैं । उन्हें इसके दुष्परिणाम की चिन्ता नहीं होती । शास्त्रकार ने यहाँ बतलाया है कि मृषावाद का फल इतना गुरुतर एवं भयंकर होता है कि नरकगति और तिर्यंचगति के भयानक कष्टों को दीर्घ काल पर्यन्त भोगने के पश्चात् भी उनसे पिण्ड नहीं छूटता । उसका फल जो शेष रह जाता है उसके प्रभाव से मृषावादी जब मनुष्यगति में उत्पन्न होता है तब भी वह अत्यन्त दुरवस्था का भागी
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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