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________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक-७] [५११ संस्थानविचय-धर्मास्तिकायादि ६ द्रव्य, उनकी पर्याय, जीव-अजीव के आकार, उत्पाद-व्ययध्रौव्य, लोकस्वरूप, पृथ्वी, द्वीप, सागर, नरक, स्वर्ग आदि का आकार, लोकस्थिति, जीव की गति-आगति, जीवन-मरण आदि शास्त्रोक्त पदार्थों का चिन्तन-मनन करना तथा इस अनादि-अनन्त जन्म-मरणप्रवाहरूप संसार-सागर से पार करने वाली ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप अथवा संवर-निर्जरारूप धर्मनौका का विचार करना, ऐसे धर्मचिन्तन में मन को एकाग्र करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। धर्मध्यान के आज्ञारुचि आदि ४ लक्षण हैं। रुचि का अर्थ श्रद्धा है। अवगाढ़रुचि को दूसरे शब्दों में उपदेशरुचि भी कह सकते हैं। अथवा द्वादशांगी के विस्तारपूर्वक ज्ञान करने से जिनोक्त तत्त्वों पर जो श्रद्धा होती है, वह भी अवगाढ़रुचि है। अथवा साधु-साध्वियों के शास्त्रानुकूल उपदेश से जो श्रद्धा होती है, वह भी अवगाढ़रुचि है। वस्तुत: देव-गुरु-धर्म के गुणों का कथन करने, उनकी भक्तिपूर्वक प्रशंसा एवं स्तुति करने तथा गुरु आदि का विनय करने से एवं श्रुत, शील, संयम एवं तप में अनुराग रखने से धर्मध्यानी पहचाना जाता है। वाचनादि चार अवलम्बन धर्मध्यान के हैं। एकत्व, अनित्यत्व, अशरणत्व एवं संसार, ये चारों धर्मध्यान की अनुप्रेक्षाएँ हैं। पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार प्रकार के ध्यान भी धर्मध्यान के अन्तर्गत हैं। शुक्लध्यान : स्वरूप और प्रकार—परावलम्बनरहित शुक्ल यानी निर्मल आत्मस्वरूप का तन्मयतापूर्वक चिन्तन करना शुक्लध्यान है। इसमें पूर्वादि-विषयक श्रुत के आधार से मन अत्यन्त स्थिर होकर योगों का निरोध हो जाता है। इस ध्यान में विषयों का इन्द्रियों एवं मन से सम्बन्ध होने पर भी वैराग्य बल से चित्त बाह्यविषयों की ओर नहीं जाता, शरीर का छेदन-भेदनादि होने पर भी चित्त ध्यान से जरा भी नहीं हटता। यह ध्यान इष्टवियोग-अनिष्टसंयोगजनित शोक को जरा भी फटकने नहीं देता, इसीलिए इसे शुक्लध्यान कहते हैं । आत्मा पर लगे हुए अष्टविध कर्ममल को दूर करके उसे शुक्ल-उज्ज्वल बनाता है, इस कारण भी यह शक्लध्यान कहलाता है। इसके चार प्रकार हैं . १. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार—एकद्रव्यविषयक अनेक पर्यायों का पृथक्-पृथक् विश्लेषणपूर्वक विस्तार से तथा पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक आदि नयों से चिन्तन करना पृथक्त्व-विर्तकसविचार शुक्लध्यान है। यह ध्यान विचारसहित होता है। विचार का विशेषार्थ यहाँ है-अर्थ, व्यञ्जन, (शब्द) और योगों में संक्रमण। इस ध्यान में शब्द से अर्थ में, शब्द से शब्द में, अर्थ से अर्थ में एवं योग से दूसरे योग में संक्रमण होना। प्राय: यह ध्यान पूर्वधारी को होता है, किन्तु मरुदेवी माता के समान जो पूर्वधारी नहीं हैं, उन्हें भी अर्थ, व्यञ्जन और योगों में संक्रमणरूप यह शुक्लध्यान होता है । यह ध्यान तीनों योग वाले को होता २. एकत्व-वितर्क-अविचार—पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व (अभेद) रूप से किसी एक पदार्थ या पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना एकत्व-वितर्क-अविचार शुक्लध्यान है। यह विचाररहित (अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों के संक्रमण से रहित) होता है। जिस प्रकार एकान्त निर्वात स्थान में
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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