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________________ उन्नीसवाँ शतक : उद्देशक - ३ ७८३ रहित । निउणसिप्पोवगया— शिल्प में निपुणता प्राप्त । तिक्खाए वइरामइए सण्हकरणीय - तीक्ष्ण - कठोर वज्रमय पीसने की शिला से । वट्टावरएणं—प्रधान शिलवट्टे (शिलापुत्र लोढ़े ) से । जउगोलासमाणंलाख के गोले के समान । पडिसाहरिय—— बारंबार पिण्डरूप में इकट्ठा करती हुई । पडिसंखिविय समेटती हुई | ति - सत्तक्खुत्तो—२१ बार । उप्पीसेज्जा — जोर से ( पूरी ताकत लगा कर ) पीसे। आलिद्धा—लगतेचिपटते हैं, या स्पर्श करते हैं । संघट्टिया — रगड़े जाते हैं, संघर्षित होते हैं । परियाविया — पीड़ित होते हैं । उद्दविया— मारे जाते हैं या उपद्रवित होते हैं । पिट्ठा — पिस जाते हैं। एमहालिया — इतनी महती - अतिसूक्ष्म । म्मे-दु-मुट्ठिय-समाहयणिचित्त गत्तकाया— चर्मेष्ट, द्रुघण और मौष्टिकादि व्यायाम - साधनों से सुदृढ हुए शरीरयुक्त । एकेन्द्रिय जीवों की अनिष्टतरवेदनानुभूति का सदृष्टान्त निरूपण ३३. पुढविकाइए णं भंते! अक्कंते समाणे केरिसियं वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरति ? गोयमा ! से जहानामए केयि पुरिसे तरुणे बलवं जाव निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुण्णं जराजज्जरियदेहं जाव दुब्बलं किलंतं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहणिज्जा, से णं गोयमा ! पुरिसे ते पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहए समाणे केरिसियं वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरइ ? 'अणि समणाउसो ! ' तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स वेदणाहिंतो पुढविकाए अक्कंते समाणे एत्तो अणितरियं चे अकंततरियं जाव अमणामतरियं चेव वेयणं पंच्चणुभवमाणे विहरइ । [३३ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव को आक्रान्त करने (दबाने या पीड़ित करने) पर वह कैसी वेदना (पीडा) का अनुभव करता है ? [३३ उ.] गौतम! जैसे कोई तरुण, बलिष्ठ यावत् शिल्प में निपुण हो, वह किसी वृद्धावस्था से जीर्ण, जराजर्जरित देह वाले यावत् दुर्बल, ग्लान (क्लान्त) के सिर पर मुष्टि से प्रहार करे ( मुक्का मारे) तो उस पुरुष द्वारा मुक्का मारने पर वृद्ध कैसी पीड़ा का अनुभव करता है ? [गौतम] आयुष्मन् श्रमणप्रवर ! भगवन् ! वह वृद्ध अत्यन्त अनिष्ट पीड़ा का अनुभव करता है। [ भगवान् — ] इसी प्रकार, हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव को आक्रान्त किये जाने पर, वह उस वृद्धपुरुष को होने वाली वेदना की अपेक्षा अधिक अनिष्टतर (अप्रिय) यावत् अमनामतर (अत्यन्त अमनोज्ञ) पीड़ा अनुभव करता है। 1 ३४. आउयाए णं भंते ! संघट्टिए समाणे केरिसियं वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरइ ? गोयमा ! जहा पुढविकाए एवं चेव । [३४ प्र.] भगवन्! अप्कायिक जीव को स्पर्श या घर्षण (संघट्ट) किये जाने पर वह कैसी वेदना का अनुभव करता है?
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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