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________________ सोलहवाँ शतक : उद्देशक - ५ ५७१ [१३] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव को और महती परिषद् को धर्मकथा कही, यावत्- -जिसे सुनकर जीव आराधक बनता है । १४. तए णं से गंगदत्ते देव समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिये धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ट० उदाए उट्ठेति, उ०२ समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, २ एवं वदासी—अहं णं भंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए ? एवं जहा सूरियाभो' जाव बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेति, उव० २ जाव तामेव दिसं पडिगए। [१४ प्र.] उस समय गंगदत्त देव श्रमण भगवान् महावीर से धर्मदेशना सुनकर और अवधारणा करके हृष्ट-तुष्ट हुआ और फिर उसने खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार पूछा— भगवन् ! मैं गंगदत्त देव भवसिद्धिक हूँ या अभवसिद्धिक ? [१४ उ. ] हे गंगदत्त! (राजप्रश्नीय सूत्र के ) सूर्याभदेव के समान (यहाँ समग्र कथन समझना ।) फिर गंगदत्त देव ने भी सूर्याभदेववत् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि (नाट्यकला) प्रदर्शित की और फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। . विवेचन — प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. ९ से १४ तक) में गंगदत्त देव द्वारा भगवान् की सेवा में पहुँच कर अप पूर्वोक्त शंका का समाधान प्राप्त करके, फिर भगवान् की पर्युपासना करके उनसे धर्मकथा सुनकर तथा अपनी भविसिद्धिकता के विषय में भगवान् से निर्णय प्राप्त करके दृष्ट-तुष्ट होकर सूर्याभदेववत् नाट्यकला दिखाने का वृतान्त प्रस्तुत किया गया है। मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि देव का कथन — मिथ्यादृष्टि देव का कथन था कि 'जो पुद्गल अभी परिणम रहे हैं, उन्हें 'परिणत' नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वर्तमानकाल और भूतकाल में परस्पर विरोध है। उन्हें 'अपरिणत' कहना चाहिए।' सम्यग्दृष्टि देव ने उत्तर दिया –— परिणमते हुए पुद्गलों को परिणत कहना चाहिए, अपरिणत नहीं, क्योंकि जो परिणमते हैं, उनका अमुक अंश परिणत हो चुका है, अतः वे सर्वथा ' अपरिणत' नहीं रहे।‘परिणमते हैं', यह कथन उस परिणाम के सद्भाव में ही हो सकता है, असद्भाव में नहीं । जब परिणाम का सद्भाव मान लिया गया हो तो, अमुक अंश में उसकी परिणतता भी अवश्य माननी चाहिए, अन्यथा पुद्गल का अमुक अंश में परिणमन जाने पर भी उसकी परिणतता का सर्वथा अभाव हो जाएगा। इसीलिए भगवान् ने सम्यग्दृष्टि देव द्वारा कथित तथ्य का समर्थन करते हए कहा— 'सच्चमेसे अट्ठे । ' १. जाव शब्द सूचक पाठ— ' सम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी परित्तसंसारिए अणंतसंसारिए, सुलभबोहिए, दुल्लभबोहिए आराहए विराहए चरिमे अचरिमे ' इत्यादि । - अ.वृ. पत्र ७०८ २. वियाहपण्णतिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २ पृ. ७५७-७५८ ३. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७०७ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २५४२
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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