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________________ ५०० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आठों में से मद्यपान, नाच, गान और अंजलिकर्म, ये चार चरम तो स्वयं गोशालक से सम्बन्धित हैं। पुष्कलसंवर्तक आदि तीन बातों का इस प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि स्वयं को अतिशयज्ञानी सिद्ध करने तथा जन मनोरंजन करने के लिए एवं पूर्वोक्त चरमों से इसकी समानता बता कर अपने दोषों को छिपाने के लिए इनको भी 'चरम' बता दिया है। आठवें चरम में उसने स्वयं को चरम तीर्थंकर बताया है। अपने चरमजिनत्व को सिद्ध करने के लिए उसने चार प्रकार के पानक और चार प्रकार के अपानक की कल्पना की है। लोगों को यह बताने के लिए कि मैं तेजोलेश्या जनित दाहोपशमन के लिए मद्यपान, आम्रफल को चूसना तथा मिट्टी मिले शीतल जल से गात्रसिंचन आदि नहीं करता, मैं अपनी तेजोलेश्या से नहीं जलता, किन्तु शुद्धपानक वाला तीर्थंकर बनता है तब उसके शरीर से स्वत: अग्नि प्रकट होती है, जो उसे जलाती है। बल्कि तीर्थंकर जब मोक्ष जाते हैं, तब ये बातें अवश्य होती हैं, अत: इनके होने में कोई दोष नहीं है। वस्तुतः शुद्धपानक की ऊटपटांग कल्पना का पानक से कोई सम्बन्ध नहीं है।' कठिन शब्दार्थ-वजस्स पच्छायणट्ठताए—पाप को ढंकने-छिपाने के लिए। गोपुट्ठए—गाय की पीठ पर से गिरा हुआ पानी। दाथालगं—पानी से भीगा हुआ स्थल। संसि—स्वयं के। अयंपुल का सामान्य परिचय, हल्ला के आकार की जिज्ञासा का उद्भव, गोशालक से प्रश्न पूछने का निर्णय, किन्तु गोशालक की उन्मत्तवत् दशा देख अयंपुल का वापस लौटने का उपक्रम ___ ९६. तत्थ णं सावत्थीए नगरीए अयंपुले णामं आजीविओवासए परिवसति अड्ढे जहा हालाहला जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति। [९६] उसी श्रावस्ती नगरी में अयंपुल नाम का आजीविकोपासक रहता था। वह ऋद्धि-सम्पन्न यावत् अपराभूत था। वह हालाहला कुम्भारिन के समान आजीविक मत के सिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था। ९७. तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स अन्नदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयेमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था—किंसंठिया णं हल्ला पन्नत्ता ? [९७] किसी दिन उस अयंपुल आजीविकोपासक को रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्बजागरणा करते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ-'हल्ला नामक कीट-विशेष का आकार कैसा बताया गया है ?' ९८. तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स दोच्चं पि अयमेयारूवे अज्झथिए जाव १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २, पृष्ट ७२१-७२२ ___ (ख) भगवती. हिन्दीविवेचन भा. ५, पृ. २४४५-२४४६ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६८४
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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