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________________ ४१२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कालं करेइ तओ पच्छा अमुच्छिते जाव आहारे भवति। से तेणढेणं गोयमा ! जाव आहारमाहारेइ। [११-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार ".. पूर्वोक्त रूप से आहार करता है ? [११-२ उ.] गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला (कोई) अनगार (प्रथम) मूच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार करता है। इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल करता है। इसके बाद आहार के विषय में अमूछित यावत् अगृद्ध (अनासक्त) हो कर आहार करता है। इसलिए हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला (कोई-कोई) अनगार पर्वोक्त रूप से यावत आहार करता है। विवेचन—भक्तप्रत्याख्यान करने वाले किसी-किसी अनगार की ऐसी स्थिति हो जाती है। इसलिए यहाँ उसके मनोभावों के उतार-चढ़ाव का चित्रण किया गया है। भक्तप्रत्याख्यान करने से पूर्व अथवा भक्तप्रत्याख्यान कर लेने के पश्चात् तीव्र क्षुधावेदनीय कर्म के उदयवश वह पहले आहार में मूछित, गृद्ध यावत् अत्यासक्त होता है। फिर वह मारणान्तिक समुद्घात करता है। तत्पश्चात् वह उस (मा० समु०) से निवृत्त होकर मूर्छा, गृद्धि यावत् आसक्ति से रहित हो कर प्रशान्त परिणाम पूर्वक आहार का उपयोग करता है। अर्थात्-आहार के प्रति वह मूर्छा और आसक्ति-रहित बन जाता है। यह समाधान वृत्तिकार का है। प्रकारान्तर से आशय-धारणा के अनुसार इसकी अर्थसंगति इस प्रकार से है—संथारा (यावज्जीव अनशन) करके काल करने वाला अनगार जब काल करके देवलोक में उत्पन्न होता है, तब उत्पन्न होते ही वह आसक्ति और गृद्धिपूर्वक आहार ग्रहण करता है, तदनन्तर वह आसक्ति-रहित होकर आहार करता है। कठिन शब्दों के भावार्थ—मुच्छिए-मूछित-आहारसंरक्षण में अनुबद्ध अथवा उक्त (आहार) दोष के विषय में मूढ या मोहवश। गिद्धे-गृद्ध-प्राप्त आहार के विषय में आसक्त, या अतृप्त होने से उक्त सरस आहार के विषय में लालसायुक्त।अज्झोववन्ने-अध्युपपन-आसक्त, अप्राप्त आहार की चिन्ता में अत्यधिक लीन। आहारं आहारेइ—वायु, तेलमालिश आदि या मोदकादि आहार्य पदार्थ हैं। तीव्र क्षुघावेदनीय कर्म के उदय से असमाधि उत्पन्न होने पर उसके उपशमनार्थ पूर्वोक्त आहार का उपभोग करता है। वीससाए—विश्रसास्वाभाविक रूप से। कालं करेड-काल (मरण) के समान काल-मारणान्तिकसमुदघात करता है। लवसप्तम-देव : स्वरूप एवं दृष्टान्तपूर्वक कारण-निरूपण १२. [१] अस्थि णं भंते ! 'लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा ?' हंता, अत्थि। [१२-१ प्र.] भगवन् ! क्या लवसप्तम देव 'लवसप्तम' होते हैं ? [१२-१ उ.] हाँ, गौतम ! होते हैं। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५० २. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३३७-२३३८ ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५०
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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