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________________ ३६५ चौदहवां शतक : उद्देशक-१ उम्मिसियं वा अच्छिं निमिसेज्जा, निमिसितं वा अच्छि उम्मिसेज्जा, भवेयारूवे ? णो तिणढे समठे। नेरइया णं एगसमएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उववजंति, नेरयाणं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते। [६ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों की शीघ्र गति कैसी है ? और उनकी शीघ्रगति का विषय किस प्रकार का कहा गया है ? [६ उ.] गौतम ! जैसे कोई तरुण, बलवान् एवं युगवान् (सुषम-दुःषमादिकाल में उत्पन्न हुआ विशिष्ट बलशाली) यावत् निपुण एवं शिल्पशास्त्र का ज्ञाता हो, वह अपनी संकुचित बाँह को शीघ्रता से फैलाए और फैलाई हुई बाँह को संकुचित करे; खुली हुई मुट्ठी बन्द करे और बंद मुट्ठी खोले; खुली हुए आँख बन्द करे और बन्द आँख खोले तो (हे गौतम !) क्या नैरयिक जीवों की इस प्रकार की शीघ्र गति होती है तथा शीघ्र गति का विषय होता है ? (गौतम-.) (भगवान् !) यह अर्थ समर्थ नहीं है। . (भगवान्—) (गौतम !) नैरयिक जीव एक समय की, दो समय की, अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं। हे गौतम ! नैरयिकों की ऐसी शीघ्र गति है और इस प्रकार का शीघ्र गति का विषय कहा गया है। ७. एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियव्वे। सेसं तं चेव। - [७] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (अर्थात्-चौवीस ही दण्डकों में) जानना चाहिए। विशेषता यह है कि एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट चार समय की विग्रहगति कहनी चाहिए। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन-शीघ्रगति से तात्पर्य—एक भव से दूसरे भव में जाने को यहाँ 'गति' कहा जाता है। नैरयिक जीव, नरक गति में एक समय, दो समय या तीन समय की गति से उत्पन्न होते हैं। उसमें एक समय की गति 'ऋजुगति' होती है और दो या तीन समय की गति विग्रहगति होती है। इस गति को यहाँ 'शीघ्रगति' कहा गया है। हाथ को पसारने और सिकोड़ने आदि में असंख्यात समय लगते हैं, इसलिए उसे शीघ्रगति नहीं कहा है। जब जीव, समश्रेणी में रहे हुए उत्पत्ति-स्थान में जा कर उत्पन्न होता है, तब एक समय की ऋतुगति होती है और जब विषमश्रेणी में रहे हुए उत्पत्तिस्थान में जा कर उत्पन्न होता है, तन दो या तीन समय की विग्रहगति होती है और एकेन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट चार समय की विग्रहगति होती है। जब कोई जीव भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में पश्चिम दिशा में उत्पन्न होता है, तब वह पहले समय में नीचे आता है, दूसरे समय में तिरछे उत्पत्तिस्थान में जाकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार उसकी दो समय की विग्रहगति होती है। जब कोई जीव भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में वायव्यकोण (विदिशा) में उत्पन्न होता है, तब एक १. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२७९
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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