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तेरहवां शतक : उद्देशक-४
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[६४-५ उ.] (गौतम! वहाँ वे) अनन्त (जीव अवगाढ होते हैं।) ६५. [१] जत्थ णं भंते ! एगे आउकाइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढवि० ? असंखेज्जा।
[६५-१प्र.] भगवन् ! जहाँ एक अप्कायिक जीव अवगाढ होता है, वहाँ कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं ?
[६५-१ उ.] गौतम! वहाँ असंख्य पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं। [२] केवतिया आउ० ?
असंखेजा। एवं जहेव पुढविकाइयाणं वत्तव्वया तहेव सव्वेसिं निरवसेसं भाणियव्वं जाव वणस्पतिकाइयाणं-जाव केवतिया वणस्सतिकाइया ओगाढा ?
अणंता। [६५-२ प्र.] (भगवन् ! वहाँ) अन्य अप्कायिक जीव कितने अवगाढ होते हैं ? • [६५-२ उ.] (गौतम ! वहाँ वे) असंख्य अवगाढ होते हैं। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार अन्यकायिक जीवों की समस्त वक्तव्यता, यावत् वनस्पतिकायिक तक कहनी चाहिए। (यथा) यावत्-[प्र.] 'वहाँ कितने वनस्पतिकायकि जीव अवगाढ होते हैं ?' [उ.] - (वहाँ) अनन्त अवगाढ होते हैं।'
विवेचन—प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ६४-६५) द्वारा एकेन्द्रिय जीवों के परस्पर अवगाहन के विषय में दसवें जीवावगाढद्वार के माध्यम से प्रतिपादन किया गया है।
पृथ्वीकायादि में से एक में, पृथ्वीकायादि पांचों प्रकार के जीवों की अवगाहनप्ररूपणा—जहाँ एक पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ है, वहाँ पृथ्वीकायादि चारों के असंख्य सूक्ष्म जीव अवगाढ हैं। जैसे कि कहा है—'जत्थ एगो, तत्थ नियमा असंखेजा। किन्तु वहाँ वनस्पतिकायिक के अनन्त जीव अवगाढ हैं। इसी प्रकार पांचों कायों के विषय में समझ लेना चाहिए।' धर्माऽधर्माकाशास्तिकायों पर बैठने आदि का दृष्टान्तपूर्वक निषेध-निरूपण : ग्यारहवाँ अस्तिप्रदेश-निषीदनद्वार
६६. [१] एयंसि ण भंते! धम्मत्थिकाय० अधम्मत्थिकाय० आगासत्थिकायंसि चक्किया केइ आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा ?
नो इणढे समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा।
१. भगवती अ. वृत्ति, पत्र ६१५