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बारहवां शतक : उद्देशक-९
२०९ (५) भावदेव-देवगति आदि कर्मों के उदय से जो देवों में उत्पन्न हैं, देवपर्याय से देव हैं, और देवत्व का वेदन करते हैं, वे भावदेव हैं।'
कठिन शब्दार्थ भविए—भव्य-योग्य । चाउरंतचक्कवट्टी-चतुरन्त के स्वामी, चक्र से वर्तनशील। चतुरत्न शब्द के ग्रहण करने से वासुदेव आदि सामान्य नरपतियों का निराकरण हो गया। सागरवरमेखलाहिवइणो—सागर ही जिसकी श्रेष्ठ मेखला (करधनी) है, ऐसी षट्खण्डात्मक पृथ्वी के अधिपति। णवनिहिपतिणो–नौ निधियों के स्वामी। पंचविध देवों की उत्पत्ति का सकारण निरूपण
७. भवियदव्वदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति? कि नेरइएहितो उववजंति, तिरिक्खमणुस्सदेवेहिंतो उववजंति ?
गोयमा ! नेरइएहिंतो उववजंति, तिरि-मणु-देवेहिंतो वि उववजंति। भेदो जहा' वकंतीए। सव्वेसु उववातेयव्वा जाव अणुत्तरोववातिय त्ति। नवरं असंखेजवासाउय-अकम्मभूमग-अंतरदीवगसव्वट्ठसिद्धवजं जाव अपराजियदेवेहितो वि उववजंति, णो सव्वट्ठसिद्धदेवेहिंतो उववजंति।
[७ प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव किन में (किन जीवों या किन गतियों में) से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं, या तिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देवों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं?
___ [७ उ.] गौतम ! वे नैरयिकों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं, तथा तिर्यञ्च, मनुष्य या देवों में से भी उत्पन्न होते हैं । (यहाँ प्रज्ञापना सूत्र के छठे) व्युत्क्रान्ति पद (में कहे) अनुसार भेद (विशेषता) कहना चाहिए। इन सभी की उत्पत्ति के विषय में यावत् अनुत्तरोपपातिक तक कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि असंख्यातवर्ष को आयु वाले अकर्मभूमिक तथ अन्तद्वीपक एवं सर्वार्थसिद्ध के जीवों को छोड़कर यावत् अपराजित देवों (भवनपति से लेकर अपराजित नामक चतुर्थ अनुत्तरविमानवासी देवों) तक से आकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु सर्वार्थसिद्ध के देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते।
८.[१] नरदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं नेरतिय० पुच्छा। गोयमा ! नेरतिएहिंतो उववजंति, नो तिरि०, नो मणु०, देवेहिंतो वि उववजति।
[८-१ प्र.] भगवन् ! नरदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिक, तिर्यञ्च मनुष्य या देवों में से आकर उत्पन्न होते हैं ?
[८-१ उ.] गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, देवों से भी उत्पन्न होते हैं, किन्तु न तो मनुष्य से १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५८५ २. (क) वही, पत्र ५८५. (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ४, पृ. २०८७ ३. देखिए-पण्णवणासुत्तं भा. १ छठा व्युत्क्रान्तिपद, सू. ६३९-६५. (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. १६९-७५