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अष्टम शतक : उद्देशक-५
आजीविकोपासकों का आचार-विचार-गोशालक मंखलीपुत्र के शिष्य आजीविक कहलाते हैं। गोशालक के समय में उसके ताल, तालप्रलम्ब आदि बारह विशिष्ट उपासक थे। वे उदुम्बर आदि पांच प्रकार के फल तथा अन्य कुछ फल नहीं खाते थे। जिन बैलों को बधिया नहीं किया गया है और नाक नाथा नहीं गया है, उनसे अहिंसक ढंग से व्यापार करके वे जीविका चलाते थे।
श्रमणोपासकों की विशेषता—पूर्वोक्त ४९ भंगों में से यथेच्छा भंगों द्वारा श्रमणोपासक अपने व्रत, नियम, संवर, त्याग, प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करते हैं, जबकि आजीविकोपासक इस प्रकार से हिंसा आदि का त्याग नहीं करते, न ही वे कर्मादान रूप पापजनक व्यवसायों का त्याग करते हैं; श्रमणोपासक तो इन १५ कर्मादानों का सर्वथा त्याग करता है, वह इन हिंसादिमूलक व्यवसायों को अपना ही नहीं सकता। यही कारण है कि ऐसा श्रमणोपासक चार प्रकार के देवलोकों में से किसी एक देवलोक में उत्पन्न होता है; क्योंकि वह जीवन और जीविका दोनों से पवित्र, शुद्ध और निष्पाप होता है और उसे विशिष्ट देव, गुरु, धर्म की प्राप्ति होती
कर्मादान और उसके प्रकारों की व्याख्या-जिन व्यवसायों या कर्मों (आजीविका के कार्यों) से ज्ञानावरणीय आदि अशुभकर्मों का विशेषरूप से बंध होता है, उन्हें अथवा कर्मबंध के हेतुओं को कर्मादान कहते हैं। श्रावक के लिए कर्मादानों का आचरण स्वयं करना, दूसरों से कराना या करते हुए का अनुमोदन करना, निषिद्ध है। ऐसे कर्मादान पन्द्रह हैं (१)इंगालकम्मे (अंगारकर्म) अंगार अर्थात् अग्निविषयक कर्म यानी अग्नि से कोयले बनाने और उसे बेचने-खरीदने का धंधा करना, (२) वणकम्मे (वनकर्म) जंगल को खरीद का वृक्षों, पत्तों आदि को काट कर बेचना, (३) साडीकम्मे (शाकटिककर्म) गाड़ी, रथ, तांगा, इक्का आदि तथा उसके अंगों को बनाने और बेचने का धंधा करना, (४) भाडीकम्मे ( भाटीकर्म) बैलगाड़ी आदि से दूसरों का सामान एक जगह भांडे से ले जाना, किराये पर बैल, घोडा आदि देना, मकान आदि बना-बनाकर किराये पर देना, इत्यादि धंधों में आजीविका चलाना, (५) फोडीकम्मे (स्फोटकर्म) सुरंग आदि बिछाकर विस्फोट करके जमीन, खान आदि खोदने-फोड़ने का धंधा करना,(६)दंतवाणिज्जे (दन्तवाणिज्य) पेशगी देकर हाथीदांत आदि खरीदने व उनसे बनी हुई वस्तुएँ बेचने आदि का धंधा करना, (७)लक्खवाणिज्जे (लाक्षावाणिज्य)लाख का क्रय-विक्रय करके आजीविका करना,(८) केसवाणिजे (केशवाणिज्य) केश वाले जीवों का अर्थात्-गाय, भैंस आदि को तथा दास-दासी आदि को खरीदबेचकर व्यापार करना, (९) रसवाणिज्जे (रसवाणिज्य) मदिरा आदि नशीले रसों को बनाने-बेचने आदि का धंधा करना, (१०) विसवाणिज्जे (विषवाणिज्य) विष (अफीम, संखिया आदि जहर) बेचने का धंधा करना, (११)जंतपीलणकम्मे (यंत्रपीडनकर्म)तिल, ईख आदि पीलने के कोल्हू, चरखी आदि का धंधा करना यन्त्रपीडनकर्म है, (१२) निल्लंछणकम्मे (निन्छनकर्म) बैल, आदि को खसी (बधिया) करने का धंधा, (१३) दवग्गिदावणया (दावाग्निदापनता) खेत आदि साफ करने के लिए जंगल में आग लगाना-लगवाना, (१४) सर-दह-तलायसोसणया (सरोह्रद-तड़ाग-शोषणता) सरोवर, हृद या १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३७१-१७१, . (ख) योगशास्त्र स्वोपज्ञवृतिप्रकाश ४