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________________ पंचम शतक : उद्देशक-९] [५१७ गोतमा! इहं तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, इहं चेव तेसिं एवं पण्णायति, तं जहा—समया ति वा जाव उस्सप्पिणी ति वा। से तेणढेणं०। [१२-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है)? [१२-२ उ.] गौतम! यहाँ (मनुष्यलोक में) उनका (समयादि का) मान है, यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ उनको उनका (समयादि का) इस प्रकार से प्रज्ञान होता है, यथा—यह समय है, या यावत् यह उत्सर्पिणी काल है। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यहाँ रहे हुए मनुष्यों को समयादि का प्रज्ञान होता है। १३. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं। [१३] जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में (समयादिप्रज्ञान के) विषय में कहना चाहिए। विवेचन–चौबीस दण्डक के जीवों में समयादिकाल के ज्ञानसम्बन्धी प्ररूपणा प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १० से १३ तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों में से कहाँ-कहाँ किनकिन जीवों को समयादि का ज्ञान नहीं होता, किनको होता है? और किस कारण से? यह निरूपण किया गया है। निष्कर्ष –चौबीस दण्डक के जीवों में से मनुष्यलोक में स्थित मनुष्यों के अतिरिक्त मनुष्यलोक बाह्य किसी भी जीव को समय आवलिका आदि का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वहाँ समयादि का मानप्रमाण नहीं होता है। समयादि की अभिव्यक्ति सूर्य की गति से होती है और सूर्य की गति मनुष्यलोक में ही है, नरकादि में नहीं। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि मनुष्यलोक स्थित मनुष्यों को ही समयादि का ज्ञान होता है; मनुष्यलोक से बाहर समयादि कालविभाग का व्यवहार नहीं होता। यद्यपि मनुष्यलोक में कितने ही तिर्यंच-पंचेन्द्रिय, भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देव हैं, तथापि वे स्वल्प हैं और कालविभाग के अव्यवहारी हैं, साथ ही मनुष्यलोक के बाहर वे बहुत हैं। अतः उन बहुतों की अपेक्षा से यह कहा गया है कि पंचेन्द्रियतिर्यंच, भवनपति, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव समय आदि कालविभाग को नहीं जानते। मान और प्रमाण का अर्थ -समय, आवलिका आदि काल के विभाग हैं। इनमें अपेक्षाकृत सूक्ष्म काल 'मान' कहलाता है, और अपेक्षाकृत प्रकृष्ट काल 'प्रमाण'। जैसे—'मुहूर्त' मान है, मुहूर्त की अपेक्षा सूक्ष्म होने से 'लव' प्रमाण है। लव की अपेक्षा 'स्तोक' प्रमाण है। और स्तोक की अपेक्षा 'लव' मान है। इस प्रकार से 'समय' तक जान लेना चाहिए। १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक २४७ (ख) 'मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके','तत्कृतः कालविभागः,"बहिरवस्थिता:'-तत्त्वार्थसूत्र अ.४ सू. १४-१५-१६ । २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २४७
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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