SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [४९१ निष्कम्प वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-सूक्ष्म-बादरपरिणत एवं शब्दपरिणत अशब्दपरिणत के विशिष्ट अन्तरकाल का निरूपण किया गया है। अन्तरकाल की व्याख्या-एक विशिष्ट पुद्गल अपना वह वैशिष्ट्य छोड़ कर दूसरे रूप में परिणत हो जाने पर फिर वापस उसी भूतपूर्व विशिष्टरूप को जितने काल बाद प्राप्त करता है, उसे ही अन्तरकाल कहते हैं। क्षेत्रादि-स्थानायु का अल्प-बहुत्व २९. एयस्स णं भंते! दव्वट्ठाणाउयस्स खेत्तट्ठाणाउयस्स ओगाहणट्ठाणाउयस्स भावट्ठाणाउयस्स कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवे खेत्तट्ठाणाउए, ओगाहणट्ठाणाउए असंखेन्जगुणे, दव्वट्ठाणाउए असंखेजगुणे, भावट्ठाणाउए असंखेन्जगुणे। खेत्तोगाहण-दव्वे भावहाणाउयं च अप्पबहुं ।। खेत्ते सव्वत्थोवे सेसा ठाणा असंखगुणा ॥१॥ [२९ प्र.] भगवन् ! इन द्रव्यस्थानायु, क्षेत्रस्थानायु, अवगाहनास्थानायु और भावस्थानायु; इन सबमें कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक है ? . [२९ उ.] गौतम! सबसे कम क्षेत्रस्थानायु है, उससे अवगाहनास्थानायु असंख्येयगुणा है, उससे द्रव्यस्थानायु असंख्येयगुणा है और उससे भावस्थानायु असंख्येयगुणा है। गाथा का भावार्थ क्षेत्रस्थानायु, अवगाहना-स्थानायु, द्रव्यस्थानायु और भावस्थानायु; इनका अल्प-बहुत्व कहना चाहिए। इनमें क्षेत्रस्थानायु सबसे अल्प है, शेष तीन स्थानायु क्रमशः असंख्येयगुणा विवेचन क्षेत्रादिस्थानायु का अल्पबहुत्व—प्रस्तुत सूत्र और तदनुरूप गाथा में क्षेत्र, अवगाहना, द्रव्य और भावरूप स्थानायु के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा की गई है। द्रव्य-स्थानायु आदि का स्वरूप—पुद्गल द्रव्य का स्थान-यानी परमाणु, द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध आदि रूप में अवस्थान की आयु अर्थात् स्थिति (रहना) द्रव्यस्थानायु है। एकप्रदेशादि क्षेत्र में पुद्गलों के अवस्थान को क्षेत्रस्थानायु कहते हैं। इसी प्रकार पुद्गलों के आधार-स्थलरूप एक प्रकार का आकार अवगाहना है, इस अवगाहित किये हुए परिमित क्षेत्र में पुद्गलों का रहना अवगाहना-स्थानायु कहलाता है। द्रव्य के विभिन्न रूपों में परिवर्तित होने पर भी द्रव्य के आश्रित गुणों का जो अवस्थान रहता है, उसे भावस्थानायु कहते हैं। द्रव्यस्थानायु आदि के अल्प-बहुत्व का रहस्य-द्रव्यस्थानायु आदि चारों में क्षेत्र अमूर्तिक होने से तथा उसके साथ पुद्गलों के बंध का कारण 'स्निग्धत्व' न होने से पुद्गलों का क्षेत्रावस्थानकाल (अर्थात् क्षेत्रस्थानायु) सबसे थोड़ा बताया गया है। एक क्षेत्र में रहा हुआ पुद्गल दूसरे क्षेत्र में चला १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक २३५ २. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २३६ (ख) भगवती हिन्दी विवेचन, भा. २, पृ.८८३-८८४
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy