SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७४] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अथवा बहुत्व (बहुत से रूपों) की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [१४ उ.] गौतम ! इस विषय में जीवाभिगमसूत्र में जिस प्रकार आलापक कहा है, उसी प्रकार का आलापक यहाँ भी 'दुरहियास' शब्द तक कहना चाहिए। विवेचन–अन्यतीर्थिक-प्ररूपित मनुष्य समाकीर्ण मनुष्यलोक के बदले नारकसमाकीर्ण नरकलोक प्ररूपणा, एवं नैरयिक-विकुर्वणा प्रस्तुत दो सूत्रों में दो मुख्य तथ्यों का निरूपण किया गया है—(१) मनुष्यलोक ४००-५०० योजन तक ठसाठस मनुष्यों से भरा है, अन्यतीर्थिकों के विभंगज्ञान द्वारा प्ररूपित इस कथन को मिथ्या बताकर नरकलोक नैरयिक जीवों से ठसाठस भरा है, इस तथ्य की प्ररूपणा की गई है। (२) नैरयिक जीव एकरूप एवं अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं।२ नैरयिकों की विकुर्वणा के सम्बन्ध में जीवाभिगम का अतिदेश—जीवाभिगमसूत्र के आलापक का सार इस प्रकार है-रत्नप्रभा आदि नरकों में नैरयिक जीव एकत्व (एकरूप) की भी विकुर्वणा करने में समर्थ है, बहुत्व (बहुत-से रूपों) की भी। एकत्व की विकुर्वणा करते हैं, तब वे एक बड़े मुद्गर या मुसुंढि, करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, नाराच, कुन्त (भाला), तोमर, शूल और लकड़ी यावत् भिंडमाल के रूप की विकुर्वणा कर सकते हैं और जब बहुत्व (बहुत से रूपों) की विकुर्वणा करते हैं, तब मुद्गर से लेकर भिंडमाल तक बहुत-से शस्त्रों की विकुर्वणा कर सकते हैं। वे सब संख्येय होते हैं, असंख्येय नहीं। इसी प्रकार वे सम्बद्ध और सदृश रूपों की विकुर्वणा करते हैं, असम्बद्ध एवं असदृश रूपों की नहीं। इस प्रकार की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर को अभिघात पहुँचाते हुए वेदना की उदीरणा करते हैं। वह वेदना उज्ज्वल (तीव्र), विपुल (व्यापक), प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, परुष, (कठोर), निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुर्ग, दुःखरूप और दुःसह होती है। विविध प्रकार से आधाकर्मादि दोषसेवी साधु अनाराधक कैसे?, आराधक कैसे? १५.[१] 'आहाकम्मं णं अणवज्जे' त्ति मणं पहारेत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेति नत्थि तस्स आराहाणा। [१५-१] 'आधाकर्म अनवद्य-निर्दोष है', इस प्रकार जो साधु मन में समझता (धारणा बना आलापक इस प्रकार है'गोयमा! एगत्तं पि पहू विउव्वित्तए पुहत्तं पि पहू विउव्वित्तए। एगत्तं विउव्वमाणे एगं महं मोग्गररूवं मुसुंढिरूवं वा' इत्यादि। पुहत्तं विउव्वमाणे मोग्गररूवाणि वा' इत्यादि।ताई संखेज्जाइंनो असंखेज्जाई। एवं संबद्धाई २ सरीराई विउव्वंति, विउव्वित्ता अन्नभन्नस्स कायं अभिहणमाणा २ वेयणं उदीरेंति उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरुसं निठुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं त्ति' -जीवाभिगम प्र.३ उ. २, भगवती अ. वृत्ति, पृ. २३१ २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. २०८-२०९ (क)जीवाभिगमसूत्र, प्रतिपत्ति ३, द्वितीय उद्देशक नारकस्वरूपवर्णन, प्र. ११७ (ख)भगवती-टीकानुवाद खं. २, पृ. २०८
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy