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________________ ४७०] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अग्निकाय : कब महाकर्मादि से युक्त, कब अल्पकर्मादि से युक्त ? । ९. अगणिकाए णं भंते! अहुणोज्जलिते समाणे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेदणतराए चेव भवति। अहे णं समए समए वोक्कसिज्जमाणे वोक्कसिज्जमाणे वोच्छिज्जमाणे चरिमकालसमयंसि इंगालभूते मुम्मुरभूते छारियभूते, तओ पच्छा अप्पकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव, अप्पवेदणतराए चेव भवति? हंता, गोयमा! अगणिकाए णं अहुणुज्जलिते समाणे० तं चेव। [९ प्र.] भगवन्! तत्काल प्रज्वलित अग्निकाय क्या महाकर्मयुक्त, तथा महाक्रिया, महाश्रव और महावेदना से युक्त होता है? और इसके पश्चात् समय-समय में (क्षण-क्षण में) क्रमशः कम होता हुआ—बुझता हुआ तथा अन्तिम समय में (जब) अंगारभूत, मुर्मुरभूत, (भोभर-सा हुआ) और भस्मभूत हो जाता है (तब) क्या वह अग्निकाय अल्पकर्मयुक्त तथा अल्पक्रिया, अल्पाश्रव अल्पवेदना से युक्त होता है ? [९ उ.] हाँ, गौतम! तत्काल प्रज्वलित अग्निकाय महाकर्मयुक्त भस्मभूत हो जाता है, उसके पश्चात् यावत् अल्पवेदनायुक्त होता है। विवेचन अग्निकाय : कब महाकर्मादि से युक्त, कब अल्पकर्मादि से युक्त?—प्रस्तुत नौवें सूत्र में तत्काल प्रज्वलित अग्निकाय को महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव एवं महावेदना से युक्त तथा धीरे-धीरे क्रमशः अंगारे-सा, मुर्मुर-सा एवं भस्म-सा हो जाने पर उसे अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पआश्रव और अल्प-वेदना से युक्त बताया गया है। महाकर्मादि या अल्पकर्मादि से युक्त होने का रहस्य–तत्काल प्रज्वलित अग्नि बन्ध की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय आदि महाकर्मबन्ध का कारण होने से 'महाकर्मतर' है। अग्नि का जलना क्रियारूप होने से यह महाक्रियातर है। अग्निकाय नवीन कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत होने से यह महाश्रवतर है। अग्नि लगने के पश्चात् होने वाली तथा उस कर्म (अग्निकाय से बद्ध कर्म) से उत्पन्न होने वाली पीड़ा के कारण अथवा परस्पर शरीर के सम्बन्ध (दबने) से होने वाली पीड़ा के कारण वह महावेदनातर है। लेकिन जब प्रज्वलित हुई अग्नि क्रमशः बुझने लगती है, तब क्रमशः अंगार आदि अवस्था को प्राप्त होती हुई वह अल्पकर्मतर, अल्पक्रियातर, अल्पावतर एवं अल्पवेदनातर हो जाती है। बुझते-बुझते जब वह भस्मावस्था को प्राप्त हो जाती है, तब वह कर्मादि-रहित हो जाती है। कठिन शब्दों की व्याख्या-अहुणोज्जलिए-अभी-अभी तत्काल जलाया हुआ।वोक्कसिज्जमाणे अपकर्ष को प्राप्त (कम) होता हआ। अप्प-अग्नि की अंगारादि अवस्था की अपेक्षा अल्प यानि थोड़ा तथा भस्म की अपेक्षा अल्प का अर्थ भाव करना चाहिए। १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २२९ वही, पत्रांक २२९
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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