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________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [४४९ [२७ उ.] हाँ, गौतम! केवली चरम कर्म को या चरम निर्जरा को जानता-देखता है। २८. जहा णं भंते ! केवली चरमकम्मं वा०, जहा णं अंतकरेणं आलावगो तहा चरमकम्मेणं वि अपरिसेसितो णेयव्वो। [२८ प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार केवली चरमकर्म को या चरमनिर्जरा को जानता-देखता है, क्या उसी तरह छद्मस्थ भी...यावत् जानता-देखता है ? [२८ उ.] गौतम! जिस प्रकार 'अन्तकर' के विषय में आलापक कहा था, उसी प्रकार 'चरमकर्म' का पूरा आलापक कहना चाहिए। विवेचन केवली और छद्मस्थ द्वारा अन्तकर, अन्तिमशरीरी, चरमकर्म और चरमनिर्जरा को जानने-देखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा प्रस्तुत चार सूत्रों में क्रमशः छह तथ्यों का प्रतिपादन किया गया है—(१) केवली मनुष्य अन्तकर और अन्तिम शरीरी को जानता-देखता है, (२) किन्तु छद्मस्थ मनुष्य केवली की तरह पारमार्थिक प्रत्यक्ष से इन्हें नहीं जानता-देखता, वह सुनकर या प्रमाण से जानता-देखता है। (३) सुनकर का अर्थ है—केवली, केवली के श्रावक-श्राविका तथा उपासकउपासिका से, और स्वयंबुद्ध, स्वयंबुद्ध के श्रावक-श्राविका तथा उपासक-उपासिका से। (४) 'प्रमाणद्वारा' का अर्थ है-अनुयोगद्वार वर्णित प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से। (५) केवली मनुष्य चरमकर्म और चरमनिर्जरा को आत्मप्रत्यक्ष से जानता-देखता है। (६) छद्मस्थ इन्हें केवली की तरह नहीं जानदेख पाता, वह पूर्ववत् सुन कर या प्रमाण से जानता-देखता है। चरमकर्म एवं चरमनिर्जरा की व्याख्या शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में जिस कर्म का अनुभव हो, उसे चरमकर्म तथा उसके अनन्तर समय में (शीघ्र ही) जो कर्म जीवप्रदेशों से झड़ जाते हैं, उसे चरमनिर्जरा कहते हैं। प्रमाण : स्वरूप और प्रकार—जिसके द्वारा वस्तु का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित परिच्छेद-विश्लेषणपर्वक ज्ञान किया जाता है. वह प्रमाण है। अथवा स्व (ज्ञानरूप आत्मा) और पर (आत्मा से भिन्न पदार्थ) का व्यवसायी निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है। अनुयोगद्वार सूत्र में 'ज्ञानगुणप्रमाण' का विस्तृत निरूपण है। संक्षेप में इस प्रकार है—ज्ञानगुणप्रमाण के मुख्यतया चार प्रकार हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा और आगम। प्रत्यक्ष के दो भेद–इन्द्रियप्रत्यक्ष और नो-इन्द्रियप्रत्यक्ष। इन्द्रियप्रत्यक्ष के ५ इन्द्रियों की अपेक्षा से ५ भेद और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के तीन भेद—अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। अनुमान के तीन मुख्य प्रकार—पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत्। घर से भागे हुए पुत्र को उसके पूर्व निशान (क्षत, व्रण, लांछन, मस, तिल आदि) से अनुमान करके जान लिया जाता है, वह पूर्ववत् । कार्य, कारण, गुण, अवयव और आश्रय द्वारा किये गए अनुमान से होने वाला ज्ञान शेषवत्। दृष्टसाधर्म्यवत्-यथा-एक पुरुष को देख कर अनेक पुरुषों का अनुमान, एक पके चावल को देखकर १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. २००-२०१
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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