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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३] [३३७ (या निमित्त) नहीं होता। [३] से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जाततेयंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? हंता, मसमसाविज्जइ। __[१४-३] (भगवान्-) जैसे, (कल्पना करो), कोई पुरुष सूखे घास के पूले (तृण के मुढे) को अग्नि में डाले तो क्या मण्डितपुत्र! वह सूखे घास का पूला अग्नि में डालते ही शीघ्र जल जाता है ? ( मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन्! वह शीघ्र ही जल जाता है। [४] से जहानामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदयबिंदुं पक्खिवेज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता ! से उदयबिंदू तत्तंसि अयकवल्लंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्धंसमागच्छइ ? हंता, विद्धंसमागच्छइ। [१४-४] (भगवान्-) (कल्पना करो) जैसे कोई पुरुष तपे हुए लोहे के कड़ाह पर पानी की बूंद डाले तो क्या मण्डितपुत्र ! तपे हुए लोहे के कड़ाह पर डाली हुई वह जलबिन्दु अवश्य ही शीघ्र नष्ट हो जाती है ? ( मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन्! वह जलबिन्दु शीघ्र नष्ट हो जाती है। [५] से जहानामए हरए सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठति ? हंता चिट्ठति। अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरयंसि एगं महं नावं सत्तासवं सयच्छिदं ओगाहेज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता! सा नावा तेहिं आसवद्दारेहिं आपूरेमाणी २ पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति ? हंता, चिट्ठति ? अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वतो समंता आसवहाराई पिहेइ, २ नावाउस्सिंचणएणं उदयं उस्सिंचिज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणंसि खिप्पामेव उड्ढं उद्दाति ? हंता, उहाति। एवामेव मंडियपुत्ता ! अत्तत्तासंवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स जाव गुत्तबंभयारिस्स, आउत्तं गच्छमाणस्स चिट्ठमाणस्स निसीयमाणस्स तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पादपुछणं गेण्हमाणस्स, निक्खिवमाणस्स जाव चक्खुपम्हनिवायमवि वेमाया' सुहुमा इरियावहिया किरिया कज्जइ। सा पढमसमयबद्धपुट्ठा बितियसमयवेतिता ततियसमयनिजरिया, सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेदिया निजिण्णा सेयकाले अकम्मं चांवि भवति। से तेणठेणं मंडियपुत्ता ! एवं वुच्चति–जावं च णं से जीवे सया समितं नो एयति जाव अंते अंतकिरया भवति। [१४-५] (भगवान्-) (मान लो,) 'कोई एक सरोवर है, जो जल से पूर्ण हो, पूर्णमात्रा में पानी से भरा हो, पानी से लबालब भरा हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उसमें से पानी छलक रहा हो, पानी से भरे हुए घड़े के समान क्या उसमें पानी व्याप्त होकर रहता है?' (मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन् ! उसमें पानी व्याप्त हो कर रहता है। १. पाठान्तर—वेमाया के स्थान में कहीं 'संपेहाए' पाठ है। जिसका अर्थ है-स्वेच्छा से।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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