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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१०] [२४७ हंता, गोयमा! जीवे णं सउट्ठाणे जाव उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया। [९-१ प्र.] भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम वाला जीव आत्मभाव (अपने उत्थानादि परिणामों) से जीवभाव (चैतन्य) को प्रदर्शित-प्रकट करता है; क्या ऐसा कहा जा सकता है ? [९-१ उ.] हाँ, गौतम! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से युक्त जीव आत्मभाव से जीवभाव को उपदर्शित-प्रकट करता है, ऐसा कहा जा सकता है। [२] से केणढेणं जाव वत्तव्वं सिया ? गोयमा! जीवे णं अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं एवं सुतनाणपज्जवाणं ओहिनाणपज्जवाणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं केवलनाणपज्जवाणं मतिअण्णाणपज्जवाणं सुतअण्णाणपज्जवाणं विभंगणाणपज्जवाणं चक्खुदंसणपज्जवाणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं ओहिदसणपज्जवाणं केवलदंसणपज्जवाणं उवओगं गच्छति, उवयोगलक्खणे णं जीवे। से तेणढेणं एवं वुच्चइ-गोयमा! जीवे णं सउट्ठाणे जाव वत्तव्वं सिया। . [९-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि तथारूप जीव आत्मभाव से जीवभाव को प्रदर्शित करता है, ऐसा कहा जा सकता है ? [९-२ उ.] गौतम! जीव आभिनिबोधिकज्ञान के अनन्त पर्यायों, श्रुतज्ञान के अनन्त पर्यायों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यायों, मन:पर्यवज्ञान के अनन्त पर्यायों एवं केवलज्ञान के अनन्त पर्यायों के तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंग (अवधि) अज्ञान के अनन्त पर्यायों के, एवं चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के अनन्त पर्यायों के उपयोग को प्राप्त करता है, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है। इसी कारण से, हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारपराक्रम वाला जीव, आत्मभाव से जीवभाव (चैतन्य स्वरूप) को प्रदर्शित (प्रकट) करता है। विवेचन जीव द्वारा आत्मभाव से जीवभाव का प्रकटीकरण प्रस्तुत सूत्र में उत्थानादि युक्त संसारी जीवों द्वारा किस प्रकार आत्मभाव (शयन-गमनादि रूप आत्मपरिणाम) से चैतन्य (जीवत्वचेतनाशक्ति) प्रकट (प्रदर्शित) की जाती है? इस शंका का युक्तियुक्त समाधान अंकित किया गया है। उत्थानादि विशेषण संसारी जीव के हैं—मूलपाठ के 'सउट्ठाणे' आदि जो जीव के विशेषण दिए गए हैं, वे संसारी जीवों की अपेक्षा से दिए गए हैं, क्योंकि मुक्त जीवों में उत्थानादि नहीं होते। 'आत्मभाव' का अर्थ है-उत्थान (उठना) शयन, गमन, भोजन, भाषण आदि रूप आत्मपरिणाम। इस प्रकार के आत्मपरिणाम द्वारा जीव का जीवत्व (चैतन्य-चेतनाशक्ति) प्रकाशित होता है; क्योंकि जब विशिष्ट चेतनाशक्ति होती है, तभी विशिष्ट उत्थानादि होते हैं। पर्यव-पर्याय-प्रज्ञाकृत विभाग या परिच्छेद को पर्यव या पर्याय कहते हैं, प्रत्येक ज्ञान, अज्ञान एवं दर्शन के ऐसे अनन्त-अनन्त पर्याय होते हैं। उत्थान-शयनादि भावों में प्रवर्तमान जीव आभिनबोधिक
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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