SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय शतक : उद्देशक - ५] का काटना अथवा कर्मों के कचरे को साफ करना है । राजगृह में गौतमस्वामी का भिक्षाचर्यार्थ पर्यटन [ २२३ २०. तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नगरे जाव परिसा पडिगया । [२०] उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था । वहाँ (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद् वन्दना करने गई) यावत् (धर्मोपदेश सुनकर ) परिषद् वापस लौट गई। २१. तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती - नामं अणगारे जाव' संखित्तविउलतेयलेस्से छट्ठछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भवेमाणे जाव विहरति । [२१] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) इन्द्रभूति नामक अनगार थे । यावत् वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त ( समेट) करके रखते थे । वे निरन्तर छट्ठ-छट्ट (बेले- बेले) के तपश्चरण से तथा संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरते थे। २२. तए णं से भगवं गोतमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाय, ततियाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेति, २ भायणााइं वत्थाई पडिलेहेइ, २ भायणाई पमज्जति, २ भायणाई उग्गाहेति, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, २ समणं भगवं महवीरं वंदति नम॑सति, २ एवं वदासी——–इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए छट्ठक्खमणपारणगंसि रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए । अहासुहं देवाप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । [२२] इसके पश्चात् छट्ठ (बेले) के पारणे के दिन भगवान् (इन्द्रभूति) गौतमस्वामी ने प्रथम प्रहर (पौरुषी) में स्वाध्याय किया; द्वितीय प्रहर (पौरुषी) में ध्यान ध्याया (किया;) और तृतीय प्रहर (पौरुषी) में शारीरिक शीघ्रता-रहित, मानसिक चपलतारहित, आकुलता (हड़बड़ी) से रहित होकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की; फिर पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की; तदनन्तर पात्रों का प्रमार्जन किया और फिर उन पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए। वहाँ आकर भगवान् को वन्दन - नमस्कार किया और फिर इस प्रकार निवेदन किया—' भगवन्! आज मेरे १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १३८-१३९ (ख) आचार्य ने कहा है— पुव्व-तव-संजमा होंति रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रागो संगो वुत्तो संगा कम्मं भवो तेण ॥ -तत्त्वार्थसूत्र अ. ६, सू. २० (ग) तुलना सरागसंयम-संयमासंयमाऽकामनिर्जराबालतपांसिदैवस्य । २. ‘जाव' पदसूचक पाठ — 'गोयमसगोत्ते सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वइरोसहनारायसंघयणे कणगपुलकनिग्घसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी उच्छूढसरीरे'— औप. पृ. ८३
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy