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________________ ६४४ स्थानाङ्गसूत्रम् विवेचन— जीवों की उत्पत्ति के स्थान या आधार को योनि कहते हैं। उस योनिस्थान में उत्पन्न होने वाली अनेक प्रकार की जातियों को कुलकोटि कहते हैं । गोबर रूप एक ही योनि में कृमि, कीट और बिच्छू आदि अनेक जाति के जीव उत्पन्न होते हैं, उन्हें कुल कहा जाता है। जैसे—कृमिकुल, कीटकुल, वृश्चिककुल आदि। त्रीन्द्रिय जीवों की योनियां दो लाख हैं और उनकी कुल कोटियां आठ लाख होती हैं। पापकर्म-सूत्र १२६– जीवा णं अट्ठठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा—पढमसमयणेरइयणिव्वत्तिते, (अपढमसमयणेरइयणिव्वत्तिते, पढमसमयतिरियणिव्वत्तिते, अपढमसमयतिरियणिव्वत्तिते, पढमसमयमणुयणिव्वत्तिते, अपढमसमयमणुयणिव्वत्तिते, पढमसमयदेवणिव्वत्तिते), अपढमसमयदेवणिव्वत्तिते। एवं चिण-उवचिण-(बंध-उदीर-वेद तह) णिजरा चेव। जीवों ने आठ स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्मरूप से अतीत काल में संचय किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और आगे करेंगे, जैसे १. प्रथम समय नैरयिक निर्वर्तित पुद्गलों का। २. अप्रथम समय नैरयिक निर्वर्तित पुद्गलों का। ३. प्रथम समय तिर्यंचनिर्वर्तित पुद्गलों का। ४. अप्रथम समय तिर्यंचनिर्वर्तित पुद्गलों का। ५. प्रथम समय मनुष्यनिर्वर्तित पुद्गलों का। ६. अप्रथम समय मनुष्यनिर्वर्तित पुद्गलों का। ७. प्रथम समय देवनिर्वर्तित पुद्गलों का। ८. अप्रथम समय देवनिर्वर्तित पुद्गलों का (१२६)। इसी प्रकार सभी जीवों ने उनका उपचय, बन्धन, उदीरण, वेदन और निर्जरण अतीत काल में किया है, वर्तमान में करते हैं और आगे करेंगे। पुद्गल-सूत्र १२७– अट्ठपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। आठ प्रदेशी पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं (१२७)। १२८– अट्ठपएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जाव अट्ठगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। आकाश के आठ प्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गल अनन्त कहे गये हैं। आठ गुण वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं। इसी प्रकार शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के आठ गुण वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं (१२८)। ॥ आठवां स्थान समाप्त ॥
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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