SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 611
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४४ अणिदाणता पसत्था । कल्प (साधु-आचार) के छह पलिमन्थु (विघातक) कहे गये हैं, जैसे— १. कौकुचित — चपलता करने वाला संयम का पलिमन्धु है । २. मौखरिक — मुखरता या बकवाद करने वाला सत्यवचन का पलिमन्धु है । ३. चक्षुर्लोलुप —— नेत्र के विषय में आसक्त ईर्यापथिक का पलिमन्थ है। ४. तिंतिणक— चिड़चिड़े स्वभाव वाला एषणा-गोचरी का पलिमन्थ है । ५. इच्छालोभिक— अतिलोभी निष्परिग्रह रूप मुक्तिमार्ग का पलिमन्धु है । ६. मिथ्या निदानकरण— चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के भोगों का निदान करने वाला मोक्षमार्ग का पलिमन्धु है। भगवान् ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त कहा है (१०२) । कल्पस्थित - स्थानाङ्गसूत्रम् त-सूत्र १०३ - छव्विहा कप्यट्ठिती पण्णत्ता, तं जहा— सामाइयकप्पट्ठिती, छेओवट्ठावणियकप्पट्ठिती, णिव्विसमाणकप्पट्ठिती, णिव्विट्टकप्पट्ठिती, जिणकप्पट्ठिती, थेरकप्पट्ठिती। कल्प की स्थिति छह प्रकार की कही गई है, जैसे— १. सामायिककल्पस्थिति — सर्व सावद्ययोग की निवृत्तिरूप सामायिक संयम-सम्बन्धी मर्यादा । २. छेदोपस्थानीयकल्पस्थिति —— नवदीक्षित साधु का शैक्षकाल पूर्ण होने पर पंच महाव्रत धारण कराने रूप मर्यादा। ३. निर्विशमानकल्पस्थिति — परिहारविशुद्धिसंयम को स्वीकार करने वाले की मर्यादा | ४. निर्विष्टकल्पस्थिति— परिहारविशुद्धिसंयम - साधना को पूर्ण करने वाले की मर्यादा । ५. जिनकल्पस्थिति — तीर्थंकर जिन के समान सर्वथा निर्ग्रन्थ निर्वस्त्र वेषधारण कर, एकाकी अखण्ड तपस्या की मर्यादा । ६. स्थविरकल्पस्थिति—–— साधु- संघ के भीतर रहने की मर्यादा (१०३) । विवेचन — प्रस्तुत सूत्र में कल्पस्थिति अर्थात् संयम-साधना के प्रकारों का वर्णन किया गया है। भगवान् पार्श्वनाथ के समय में संयम के चार प्रकर थे - १. सामायिक, २. परिहारविशुद्धिक, ३. सूक्ष्मसाम्पराय और ४. यथाख्यात। किन्तु काल की विषमता से प्रेरित होकर भगवान् महावीर ने छेदोपस्थापनीय संयम की व्यवस्था कर चार के स्थान पर पाँच प्रकार के संयम की व्यवस्था की। 'परिहारविशुद्धि' यह संयम की आराधना का एक विशेष प्रकार है। इसके दो विभाग हैं—– निर्विशमानकल्प और निर्विष्टकल्प । परिहारविशुद्धि संयम की साधना में चार साधुओं की साधनावस्था को निर्विशमानकल्प कहा जाता है। ये साधु ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतु में जघन्य रूप से क्रमशः एक उपवास, दो उपवास और तीन उपवास लगातार करते हैं, मध्यम रूप से क्रमशः दो, तीन और चार उपवास करते हैं और उत्कृष्ट रूप से क्रमशः तीन, चार और पाँच उपवास करते हैं। पारणा भी अभिग्रह के साथ आयंबिल की तपस्या करते हैं। ये सभी जघन्यतः नौ पूर्वों के और उत्कृष्टतः दश पूर्वी के ज्ञाता होते हैं। जो उक्त निर्विशमानकल्पस्थिति की साधना पूरी कर लेते हैं तब
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy