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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
७७०. इस प्रकार का अभिग्रह धारण करने के पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं काया के प्रति ममत्व का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर दिन का मुहूर्त (४८ मिनट) शेष रहते कार (कुमार) ग्राम पहुँच गए।
उसके पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं देहाध्यास का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर अनुत्तर (अनुपम) वसति के सेवन से,अनुपम विहार से, एवं अनुत्तर संयम, उपकरण, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि (प्रसन्नता), समिति, गुप्ति, कायोत्सर्गादि स्थान, तथा अनुपम क्रियानुष्ठान से एवं सुचरित के फलस्वरूप निर्वाण और मुक्ति मार्ग-ज्ञान-दर्शन- चारित्र - के सेवन के युक्त होकर आत्मा को प्रभावित करते हुए विहार करने लगे।
७७१. इस प्रकार विहार करते हुए त्यागी श्रमण भगवान् महावीर को दिव्य, मानवीय और तिर्यंचसम्बन्धी जो कोई उपसर्ग प्राप्त होते, वे उन सब उपसर्गों के आने पर उन्हें अकलषित, (निर्मल), अव्यथित, अदीनमना एवं मन-वचन-काया की विविध प्रकार की गुप्तियों से गुप्त होकर सम्यक् प्रकार के समभावपूर्वक सहन करते, उपसर्गदाताओं को क्षमा करते, सहिष्णुभाव धरण करते तथा शान्ति और धैर्य से झेलते थे।
_ विवेचन—आत्मभाव में रमणपूर्वक विहार एवं उपसर्ग सहन–प्रस्तुत सूत्रद्वय में भगवान् महावीर तथा उनकी साधना एवं सहिष्णुता की झांकी प्रस्तुत की गई है। आत्मभावों में विहार करने का उनका मुख्य लक्ष्य था, आत्मभाव-रमण को केन्द्र में रखकर ही उनका विहार, आहार, तप, संयम, उपकरण, संवर, ब्रह्मचर्य , क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि, समिति, गुप्ति, धर्मक्रिया, कायोत्सर्ग तथा रत्नत्रय की साधना चलती थी। इसी कारण वह तेजस्वी, प्राणवान एवं अनुत्तर हो सकी थी।
आत्मभावों में रमण की साधना के कारण ही वे देवकृत, मानवकृत या तिर्यञ्चकृत किसी भी उपसर्ग का सामना करने में व्यथित, राग-द्वेष से कलुषित, या दीनमनस्क नहीं होते थे। मनवचन-काया, तीनों योगों का संगोपन करके रखते थे। वे उन उपसर्गों को समभाव से सहते, उपसर्गकर्ताओं को क्षमा कर देते एवं तितिक्षाभाव धारण कर लेते। प्रत्येक उपसर्ग को धैर्य एवं शान्ति से झेल लेते थे।
स्थानांगसूत्र के स्थान नौवें में इसी से मिलता-जुलता उपसर्ग सहन का पाठ मिलता है। २.
चूर्णि के आधार पर विस्तृत पाठ का अनुमान प्रस्तुत सूत्रद्वय में भगवान् महावीर की साधना और उपलब्धियों की बहुत ही संक्षिप्त झाँकी दी गई है। चूर्णिकार के समक्ष इस सूत्र का पाठ
१. आचारांग मूल पाठ सटिप्पण पृ. २७३ २. 'तस्स णं भगवंतस्स साइरेगाई दुवालसवासाइं .... वोसट्ठकाए चियत्त देहे जे केइ उवसग्गा सम्मं सहिस्सइ
खमिस्सइ तितिक्खिस्सइ अहियासिस्सइ।' –स्थान ०९