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द्वितीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र ९०-९१
'परिहार' के पीछे भी दो दृष्टियाँ चूर्णिकार ने स्पष्ट की हैं -
धारणा-परिहार - बुद्धि से वस्तु का त्याग (ममत्व-विसर्जन) तथा उपभोग-परिहार शरीर से वस्तु के उपयोग का त्याग (वस्तु-संयम)।
इस आर्य मार्ग पर चलने वाला कुशल पुरुष परिग्रह में लिप्त नही होता। वास्तव में यही जल के बीच कमल की भाँति निर्लेप जीवन बिताने की जीवन-कला है। काम-भोग-विरति
९०. कामा दुरतिक्कमा । जीवियं दुप्पडिबूहगं । कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयति जूरति तिप्पति पिड्डति परितप्पति ।
९१. आयतचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभाग जाणति, उड़े भागं जाणति तिरियं भागं जाणति, गढिए अणुपरियट्टमाणे।
संधिं विदित्ता इह मच्चिएहि,
एस वीरे पसंसिते जे बद्धे पडिमोयए । ___९०. ये काम (इच्छा-वासना) दुर्लघ्य है। जीवन (आयुष्य जितना है, उसे) बढ़ाया नहीं जा सकता, (तथा आयुष्य की टूटी डोर को पुनः साँधा नहीं जा सकता)।
यह पुरुष काम-भोग की कामना रखता है (किन्तु वह परितृप्त नहीं हो सकती, इसलिए) वह शोक करता है (काम की अप्राप्ति, तथा वियोग होने पर खिन्न होता है) फिर वह शरीर से सूख जाता है, आँसू बहाता है, पीड़ा और परिताप (पश्चात्ताप) से दुःखी होता रहता है।
९१. वह आयतचक्षु- दीर्घदर्शी (या सर्वांग चिंतन करने वाला साधक) लोकदर्शी होता है । वह लोक के अधोभोग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है, तिरछे भाग को जानता है।
(काम-भोग में) गृद्ध हुआ आसक्त पुरुष संसार में (अथवा काम-भोग के पीछे) अनुपरिवर्तन - पुनः पुनः चक्कर काटता रहता है। (दीर्घदर्शी यह भी जानता है।)
यहाँ (संसार में) मनुष्यों के, (मरणधर्माशरीर की) संधि को जानकर (विरक्त हो)।
वह वीर प्रशंसा के योग्य है (अथवा वीर प्रभु ने उनकी प्रशंसा की है। जो (काम-भोग में) बद्ध को मुक्त करता है।
विवेचन - प्रस्तुत दो सूत्रों में काम-भोग की कटुता का दर्शन तथा उससे चित्त को मुक्त करने के उपाय बताये गये हैं।
टीकाकार आचार्य शीलांक ने - काम के दो भेद बताये हैं(१) इच्छाकाम और (२) मदनकाम ।'
परिहारो दुविहो- धारणापरिहारो व उवभोगपरिहारो य - आचा० चूर्णि (मुनि जम्बू० टिप्पण पृ० २६) २. पाठान्तर है - 'अहे भार्ग, अधे भावं ।'
आचारांग टीका पत्र १२३
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