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________________ शाखा-समुदायका अच्छा और प्रामाणिक इतिहास तैयार हो जाय। इस भूतके आवेशानुसार हमने उन सब सामग्रियोंका संकलन करना शुरू किया। ऐसा करनेमें हमें कुछ अधिक समय लग गया और अहमदाबादके पुरातत्त्व मंदिरके आचार्यपदके भारने हमारी पूनाकी विशेष स्थितिको अस्थिर बना दिया। इसलिये इस संग्रहके विस्तृत-संकलनका जो विचार हुआ था वह शिथिल होने लगा और चिरकाल तक कुछ कार्य न हो सका। इधर जिस प्रेसमें यह संग्रह छपा उसके मालिकने छपाईके खर्च आदिका तकाज़ा करना शुरू किया। जिस विस्तृतरूपमें इसे प्रकाशित करनेके लिये सोचा था उसमें बहुत कुछ समय और अर्थव्ययकी आवश्यकता थी और शीघ्र ही इस कार्यको परिपूर्ण करने जैसे संयोग दिखाई न देनेसे हमने अंतमें उस विचारको स्थगित किया और यह संग्रह जो इस रूपमें छप गया था, इसे ही प्रकाशित कर देना उचित समझा। ___ इसी बीचमें बाबूवर्य श्री पूरणचंदजी नाहरके अवलोकनमें यह छपा हुआ संग्रह आया और आपने इसे अपने खर्चसे प्रकाशित कर अपनी धर्मपत्नी श्रीमती इंद्रकुमारीजीके ज्ञान पंचमी तपके उद्यापन निमित्त वितीर्ण कर देनेका अभिप्राय प्रकट किया। तदनुसार पूनेसे यह छपा हुआ ग्रंथ-भाग कलकत्ते मंगवा लिया गया और प्रेसका बिल इत्यादि चुकता किया गया। इस संग्रहके साथमें हम कुछ दो शब्द लिख दें तो इसे प्रकाशित कर दिया जाय ऐसो बाबूजीको इच्छाको हमने सादर स्वीकार कर हम इस विषयमें कुछ सोचते ही थे कि कुछ ऐसे प्रसंग, एकके बाद एक, उपस्थित होते गये जिससे वर्षों तक हम उनकी उस आज्ञाका पालन नहीं कर सके और २।४ घंटेके कामको २।४ वर्ष तक ठेलते रहना पड़ा। सन् १९२८ के प्रारम्भमें महात्माजीने गुजरात-विद्यापीठको पुनरुर्घटना की, और विद्यापीठका ध्येय 'विद्या' नहीं 'सेवा' निश्चित किया और साथमें कई प्रतिज्ञाओंका बन्धन भी लगाया। हमारा उसमें कुछ विशेष मतभेद रहा और हमने अपने विचारोंको स्थिर करनेके लिए कुछ समय तक विद्यापीठके वातावरणसे दूर रहना चाहा। इसीके बाद तुरंत हमारा इरादा युरोप जानेका हुआ। युरोपके सामाजिक और औद्योगिक तंत्रोंका विशेषावलोकन करनेका हमें अधिक मौका मिला और उसमें हमें अत्यधिक रुचि उत्पन्न हुई। हमारा जो आजीवन अभ्यस्त-विषय संशोधनका है, उसमें तो हमें वहां कोई नवीन सीखनेकी बात नहीं दिखाई दो, क्योंकि जिस पद्धति और दृष्टिसे युरोपियन पण्डितगण संशोधन-कार्य करते हैं, वह हमें यथेष्ट ज्ञात थी और उसी पद्धति तथा दृष्टिसे हम बहुत समयसे अपना संशोधन-कार्य करते भी आते थे, केवल वहांके विद्वानोंका उत्साह और एकाप्रभाव विशेष अनुकरणीय मालुम हुआ। हमें जो खास अध्ययन करनेके विशेष विचार मालुम दिये, वे वहांके समाजवाद-विषयक थे। इन विचारोंका अध्ययन करते हुए हमारो जीवनाभ्यस्त जो संशोधन-रुचि है, वह शिथिल हो चली। समाज-जीवनके साथ सम्बन्ध रखनेवाली बातोंने मस्तिष्कमें अड्डा जमाना शुरू किया। इन बातोंका विशिष्ट अध्ययन करनेके लिये हमारी इच्छा वहांपर कुछ अधिक काल तक ठहरनेकी थी, लेकिन संयोगवश हमको जल्दी ही भारत लौट आना पड़ा। इधर आनेपर बाबूजीने इस संग्रहकी सर्वप्रथम ही याद दिलाई, लेकिन सत्याग्रहके नूतन युद्ध में जुड़ जानेके कारण और फिर जेलखाने जैसे एकान्तवासके अनुभवानन्दमें निमग्न हो जानेसे इन पुरानी बातोंका स्मरण करना भो कब अच्छा लगता था। एक तो योंही मस्तिष्कमें समाज-जीवनके विचारोंका आन्दोलन घुड़दौड़ कर रहा था, और उसमें फिर भारतकी इस नूतन राष्ट्रक्रान्तिके आंदोलनने सहचार किया। ऐसी स्थितिमें हमारे जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003435
Book TitleKhartargaccha Pattavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBabu Puranchand Nahar
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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