SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व की व्यवस्था के लिए भविष्य जीवन की अनिवार्यता होती है। शुभ कर्मों के फल के लिए और अशुभ कर्मों के फल के लिए भी आत्मा को अमर होना ही चाहिये । अन्यथा फल किसको मिलेगा ? प्लेटो के अनुसार आत्मा में बुद्धि भी है, संकल्प भी है, वेदना भी है और वासना भी है। नैतिक जीवन में इन सभी का स्थान है । प्लेटो ने विश्व को बौद्धिक माना है । आत्मा के बौद्धिक भाग का कार्य, अन्य भागों को नियन्त्रण में रखना है। यूनानी दर्शन में, पाइथागोरस के बाद प्लेटो ने ही आत्मा की अमरता को स्वीकार करके उसे तर्कों से सिद्ध किया है। अरस्तू के सिद्धान्त अरस्तू के दर्शन में द्रव्य और स्वरूप दो मूलभूत तत्त्व हैं । अरस्तू के विश्व दर्शन को समझने के लिए इन दोनों को समझना आवश्यक है। अरस्तू ने कारण को विस्तृत धारणा माना है। प्रत्येक वस्तु अथवा घटना के चार कारण माने हैं। ये चार कारण मिलकर एक साथ किसी घटना अथवा वस्तु के निर्माण का कार्य करते हैं। ये कारण हैं-उपादान कारण, निमित्त कारण, स्वरूप कारण और लक्ष्य कारण । बाद में उसने चार को दो कारणों में रूपान्तरित कर दिया- स्वरूप कारण और निमित्त कारण । इस प्रकार उसने मूल रूप से सब वस्तुओं और घटनाओं के दो कारण माने हैं-उपादान कारण और स्वरूप कारण । इन्हीं दो कारणों से सम्बन्धित दो पदार्थ हैं-द्रव्य और स्वरूप । प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष हैंद्रव्य या उपादान । दुसरा है-स्वरूप या वस्तु का विन्यास अथवा व्यवस्था। कारण का सिद्धान्त अरस्तू ने कारणता के सिद्धान्त के विषय में मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं । उसके द्वारा प्रतिपादित कारणता का अर्थ पर्याप्त विस्तृत है । अपने सिद्धान्त को प्रतिपादित करने के लिए उसने सर्वप्रथम कारण और प्रयोजन में अंतर स्पष्ट किया है । अरस्तू किसी भी घटना को सम्पन्न होने के लिए चार प्रकार के कारण अनिवार्य मानता है । ये चारों कारण परस्पर मिलकर ही घटना को सम्पन्न करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy