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________________ पहला अध्याय ८-तथा (१) सत् (सत्ता), (२) संख्या , (३) क्षेत्र, (४) स्पर्शन, (५) काल, (६) अन्तर (विरहकाल), (७) भाव (अवस्थाविशेष), (८) अल्पबहुत्व, इन अनुयोगों द्वारा भी सम्यग्दर्शनादि विषयों का तथा जीवादि तत्वों का बोध होता ९–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय और केवल-ये पाँच ज्ञान हैं। १०-वह पाँच प्रकार का ज्ञान दो प्रमाणरूप है। ११-पहिले के दो ज्ञान मति और श्रुत इन्द्रियादि निमित्त की अपेक्षा रखने से परोक्ष-प्रमाण हैं। १२-शेष सब ज्ञान प्रत्यक्ष-प्रमाण हैं। १३-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध-ये शब्द पर्यायभूत-एकार्थवाचक हैं। १४-वह मतिज्ञान पांच इन्द्रियों और छठे मन के निमित्त से होता है। १५-अवग्रह = विशिष्ट - कल्पनारहित सूक्ष्म अव्यक्त ज्ञान, इहा = विशेषतायुक्त विचारणा, अवाय = विशेष-निश्चय, धारणा = बहुत समय तक नहीं भूलना, इस प्रकार मतिज्ञान चार प्रकार का होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003426
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhileshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year2001
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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