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________________ अस्तेय दर्शन / २७ रोटी बनाना है, खाना-कमाना है, मकान बनवाया है, अर्थात् संसार में रहकर जीवन की जिन किन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति करनी है, उन सब में अगर विवेक है, जनता के कल्याण का विरोध नहीं है, अपने आपको पाप से बचाने की प्रेरणा चल रही है, तो उतने अंशों में वह धर्म है। जीवन व्यवहार : जन्म से मरण पर्यन्त, जो भी काम हैं, उन सब के विषय में यही सोचना पड़ेगा कि उनमें तुम धर्म के रूप पर ध्यान देते हो या नहीं ? अगर उक्त प्रेरणाएँ तुम्हारे जीवन-व्यवहार में मौजूद हैं तो कहा जाएगा कि तुमने धर्म की ऊँचाई को समझा है और तुम्हारा जीवन धर्ममयं है। और यदि उक्त प्रेरणाएँ व्यवहार में नहीं है, विवेक और जन-कल्याण का भाव नहीं है, तो तुम्हारा जीवन अधर्ममय है। दुर्भाग्य से जनता ने आज धर्म का दूसरा ही रूप समझ लिया है। लोग समझते हैं कि जब हम मन्दिर, मस्जिद, गिरजा या स्थानक में जाते हैं और वहाँ किसी प्रकार का क्रियाकाण्ड करते हैं तो धर्मोपार्जन कर लेते हैं । और ज्यों ही धर्मस्थान से बाहर निकले कि फिर हमारे जीवन का धर्म से कोई वास्ता नहीं रह जाता। इस समझ के कारण जन-जीवन कलुषित बन जाता है । जीवन में एक रूपता नहीं पैदा हो पाती। आज का मानव धर्मस्थानक में घड़ी दो घड़ी के लिए जाता है तो धर्म की बातें करता है और किसी रूढ़ क्रियाकाण्ड से चिपट जाता है और ज्यों ही बाहर निकलता है तो अपने आपको धर्म के सभी बन्धनों से विनिर्मुक्त पाता है। जहाँ जीवन में यह बहुरूपियापन है, वहाँ धर्म नहीं है। ___मनुष्य रोटी खाकर नहीं कहता कि अब मैं फिर कभी रोटी नहीं खाऊँगा, कमाई का काम करके नहीं कहता कि बस, दो घड़ी कर चुका, अब नहीं करूँगा, मगर धर्म के विषय में कहता है घड़ी-दो-घड़ी धर्म कर लिया है, क्या दिन रात वही किया करूँ। इस प्रकार की भ्रान्त धारणाओं ने आज जनता के जीवन को धर्म-विमुख बना दिया है। किन्तु जैनधर्म यह कहता है कि धर्म-स्थान में जाकर विशेष आराधना करते हो, सामायिक-पौषध. स्वाध्याय-ध्यान, भजन स्मरण आदि करते हो, और जीवन का चिन्तन और प्रभु का स्मरण करते हो, सो सब ठीक है। किन्तु धार्मिक कर्तव्य की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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