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________________ ३४-लेश्याध्ययन ३७१ आर्य द्वार५८. लेसाहिं सव्वाहिं प्रथम समय में परिणत सभी पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु। लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव न वि कस्सवि उववाओ में उपन्न नहीं होता। परे भवे अस्थि जीवस्स ।। ५९. लेसाहिं सव्वाहिं अन्तिम समय में परिणत सभी चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु। लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव न वि कस्सवि उववाओ में उत्पन्न नहीं होता। परे भवे अस्थि जीवस्स ॥ ६०. अन्तमुहुत्तम्मि गए लेश्याओं की परिणति होने पर अन्तमुहुत्तम्मि सेसए चेव। अन्तर् मुहूर्त व्यतीत हो जाता है और लेसाहि परिणयाहिं। जब अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, उस समय जीवा गच्छन्ति परलोयं ॥ जीव परलोक में जाते हैं। उपसंहार६१. तम्हा एयाण लेसाणं अत: लेश्याओं के अनुभाग को अणुभागे वियाणिया। जानकर अप्रशस्त लेश्याओं का अप्पसत्थाओ वज्जित्ता परित्याग कर प्रशस्त लेश्याओं में पसत्थाओ अहिट्ठज्जासि ॥ अधिष्ठित होना चाहिए। -त्ति बेमि। -ऐसा मैं कहता हूँ। ***** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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