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________________ आनन्द की जीवन-नीति । ५ उपयोग न करना, उनसे पूरा लाभ न उठाना अथवा उन्हें यों ही पड़ा रखना भी एक प्रकार का देशद्रोह है, प्रजा के प्रति अनैतिकता है। आनन्द जैसा चतुर एवं विवेकशील गृहस्थ इस तथ्य को भलीभाँति समझता था । संभवत: इसी विचार से उसने बहुत-सी भेड़ों और बकरियों का पालन करना आवश्यक समझा होगा। शास्त्रकार ने भी आनन्द के इस दृष्टि को महत्त्व प्रदान करने के लिए शास्त्र में इसका उल्लेख करना आवश्यक समझा । इस सम्बन्ध में दूसरी बात विशेष रूप से हमारा ध्यान आकृष्ट करती है । अधिकांश लोग उपयोगिता के दृष्टिकोण से प्रत्येक बात पर विचार करते हैं । अमुक कार्य करने से हमें क्या लाभ होगा, इससे हमारे किस स्वार्थ की सिद्धि होगी, यही लोगों के सोचने का ढङ्ग बन गया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि लोगों ने स्वार्थ-साधन को ही अपने कर्त्तव्य की कसौटी बना रखा है। मगर सोचना यह है, कि क्या उच्च - जीवन की दृष्टि से यह कसौटी अभ्रान्त है ? क्या इसकी एकमात्र यही कसौटी हो सकती है? क्या इसके अतिरिक्त किसी अन्य कसौटी पर मानव अपने कर्त्तव्य का निर्धारण नहीं कर सकता ? मुझे लगता है, जीवन और कर्त्तव्य-निर्धारण के लिए यह कसौटी अभ्रान्त नहीं है। इस कसौटी पर कस-कस कर कर्त्तव्य का निश्चय करने वाला स्वार्थी है और उसकी दृष्टि अपने तक ही सीमित रहती है । इस कसौटी की बदौलत व्यक्ति का विराट ‘अहम्' सिकुड़ कर अल्पतम परिधि में बन्द हो जाता है । वह सर्व भूतात्मभूत नहीं बन सकता। अपने ही लाभ की बात विचारने वाला व्यक्ति अपनी सहानुभूति और समवेदना विश्व को प्रदान नहीं कर सकता । अभिप्राय यह है, कि स्वार्थ की कसौटी मनुष्य के विकास की अवरोधक है । जगत् में जो महान् पुरुष हुए हैं, हम समझते हैं, उन्होंने स्वार्थ साधना को नहीं, प्रत्युत स्वार्थ के उत्सर्ग को ही अपने जीवन का प्रधान लक्ष्य समझा था और यही कारण है, कि वे अपने अन्तरतर की समस्त शक्तियाँ और उन शक्तियों का एक-एक कण जगत् के मङ्गल के लिए प्रदान कर कृत-कृत्य बने । वास्तव में, उन्होंने अपने कार्य-कलापों के भव्य प्रासाद स्वार्थ की भूमिका पर नहीं, सेवा और परोपकार की नींव पर खड़े किए हैं। इस प्रकार जीवन की कृतार्थता इस बात में नहीं, कि प्रत्येक कार्य करते समय मनुष्य अपने ही लाभ की बात सोचे; वरन् इसमें है, कि वह दूसरों की भलाई की दृष्टि से विचार करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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